Friday, June 2, 2017

रंग लाल



विचारधाराओं से परे
रंगने दो मुझको तुम लाल,
तुम अफ़साना बनो
मैं बहार बनूँ,
तुम राजा बनो - मैं बंजारा, 
तुम्हारी क्रांतियों में हो प्रेम मेरा,
मेरी क्रांति सिर्फ प्रेम,
अनंत तक रहे धाराओं में
तेरा मेरा रंग लाल !

चाय !!



चाय की पत्ती सी कड़वी मैं
अदृश्य होते धुएं से तुम,
उबलते पानी का रंग बदलती मैं
पानी के उबाल से उठते तुम,
फिर भी यत्र, तत्र और सर्वत्र में
अपना मिलन है अजब प्रिय
जैसे तुममें महकती में —
मेरी महक में बसे तुम,
और अनंत काल से दुनिया के लिए हम एक — चाय!!


बरस

तुम आना एक बरस लेके
शर्ट में छुपी अपनी गंध लेके,
फिर मैं किसी चाय की टप्री पर
टपकते बारिश के पानी की तरह
उस गंध को अपनी बातों में मिला लूंगी,
जैसे धरती में मिल कर –
लिखता है प्रेम कहानियां वह टपकता पानी...

अधेड़ बचपन–पूरा प्रेम !



आओ हम तुम घास की चादर ओढ़ कर
दौड़ती हुई गाड़ियों के बीच ढूंढें
कुछ कोपलें उस अमन–शांति की
जिसकी मिठास छुपी रहती थी
उन बूढ़ी आंखों की कहानियों में
जहां मेरे प्रिय तुम सिर्फ तुम थे–
मैं सिर्फ मैं,
और बीच में दौड़ता तेज़ी से बचपन,
निक्कर और फ्रॉक में उलझता
वो बहुरूपिया डिब्बा,
वो मर मर्ज़ी चिपकते बुड्ढी के बाल;
तिलिस्म का भ्रम भस्म हो गया
गाड़ियों के धुएं के संग,
वो मिठास बालों की
कहीं किसी वीराने में लटकती है,
उस धुएं को बाहों में भर लो प्रिय–
ले चलो उन खंडहरों में,
जहां यह गाडियां नहीं
बस हो घास संग उगती काई सा
हमारा प्रेम –
किकलियों में खिलता,
और मन मौजी हम गिरते हुए
अधेड़ उम्र का बालपन जी उठें...
© सौम्या शर्मा
- ध्यान का चमत्कार...रचनात्मक ऊर्जा :)