Dichterin(दिश्तेरिन)
Friday, June 2, 2017
अधेड़ बचपन–पूरा प्रेम !
आओ हम तुम घास की चादर ओढ़ कर
दौड़ती हुई गाड़ियों के बीच ढूंढें
कुछ कोपलें उस अमन–शांति की
जिसकी मिठास छुपी रहती थी
उन बूढ़ी आंखों की कहानियों में
जहां मेरे प्रिय तुम सिर्फ तुम थे–
मैं सिर्फ मैं,
और बीच में दौड़ता तेज़ी से बचपन,
निक्कर और फ्रॉक में उलझता
वो बहुरूपिया डिब्बा,
वो मर मर्ज़ी चिपकते बुड्ढी के बाल;
तिलिस्म का भ्रम भस्म हो गया
गाड़ियों के धुएं के संग,
वो मिठास बालों की
कहीं किसी वीराने में लटकती है,
उस धुएं को बाहों में भर लो प्रिय–
ले चलो उन खंडहरों में,
जहां यह गाडियां नहीं
बस हो घास संग उगती काई सा
हमारा प्रेम –
किकलियों में खिलता,
और मन मौजी हम गिरते हुए
अधेड़ उम्र का बालपन जी उठें...
दौड़ती हुई गाड़ियों के बीच ढूंढें
कुछ कोपलें उस अमन–शांति की
जिसकी मिठास छुपी रहती थी
उन बूढ़ी आंखों की कहानियों में
जहां मेरे प्रिय तुम सिर्फ तुम थे–
मैं सिर्फ मैं,
और बीच में दौड़ता तेज़ी से बचपन,
निक्कर और फ्रॉक में उलझता
वो बहुरूपिया डिब्बा,
वो मर मर्ज़ी चिपकते बुड्ढी के बाल;
तिलिस्म का भ्रम भस्म हो गया
गाड़ियों के धुएं के संग,
वो मिठास बालों की
कहीं किसी वीराने में लटकती है,
उस धुएं को बाहों में भर लो प्रिय–
ले चलो उन खंडहरों में,
जहां यह गाडियां नहीं
बस हो घास संग उगती काई सा
हमारा प्रेम –
किकलियों में खिलता,
और मन मौजी हम गिरते हुए
अधेड़ उम्र का बालपन जी उठें...
© सौम्या शर्मा
- ध्यान का चमत्कार...रचनात्मक ऊर्जा :)
Monday, April 14, 2014
रोता हुआ पेट (तसवीर - सोनू (कुमार अव्यय) - https://www.facebook.com/kumar.avyaya?fref=ts)
ललाट की मोतियों से गेहूँ जो सींचा था
नमक मिट्टी का रोटी में जो फीका था,
आज जगा है पेट में तपता लोहा बनके
चूल्हे में पकती गरीबी के मुँह पे राख बनके,
अब ना धरती में कोई फासी फूल खिलेगा
ना आसमान में परिवार का पंजा हिलेगा,
मजदूर की भुजाओं पे टिका समाज हमारा है
किसान के औज़ार से निकला अनाज हमारा है,
अब कलाकार के रंगों में भी रक्त होगा
गूंगा अँधा बेहरा, सब का मन अभिव्यक्त होगा...
Saturday, March 1, 2014
सुन्हेरी बालुका (तसवीर - वृत्तचित्र 'ताण बेकरो' द्वारा 'सौम्या शर्मा')
नाथ की आड़ में छुपे तुम मठाधीश
क्यूँ भूल गए नाग-मणि मुकुट को ?
जिसे सुशोभित करती वह सुन्हेरी
बालुका सी मोहक निर्जन मुस्कान,
जो तुम्हारे समाज की परिधि पर
अछूत-नंदन कि भांति दूर खड़ी है,
फिर क्यूँ पक्षपात 'भोले' - 'भोले' में ?
कहाँ गया अब तुम्हारा वो स्नेह पात्र ?
जिसकी कोर श्वेत पाखंड से भर कर
तुम उस धूलि में चमकते जीव को
अपनी स्मृति में नखलिस्तान बना देते,
अब कैसा तुम्हारा आस्था का बवंडर,
जो अछूत को पूजे और अछूत को कहे खंडर...
# सपेरा जाति आज भी 'अछूत स्टेटस' के साथ समाज में रहती है | विडम्बना यह है कि जिसे छू नहीं सकते वह समाज से प्रतिबंधित कर दिया जाता है| फिर उस नीलाम्बर में बैठे दिव्य का क्या जो अछूत-अप्रत्यक्ष है...कहीं यह दिव्य मानव स्मृति की सुविधा का परिणाम तो नहीं...?
"ताण बेकरो" - लेखक, निर्देशक, निर्माता : सौम्या शर्मा (VENI VIDI VICI Films Pvt. Ltd.)
सह निर्माता : फैसल अनवार रज्ज़ाकी (ARHAAN ARTS)
Sunday, February 16, 2014
मिथ्यायनी (तसवीर: द्वारा Kumar Avyaya - https://www.facebook.com/kumar.avyaya?fref=ts)
मेरे मन के अंतर्गृह में प्रभावी होती कात्यायनी
प्रवेश मत होना यथार्थ में तुम पहने कषाय वस्त्र,
सर्व खंडन हो जाएगा जग में मेरे शब्दों का त्रम,
बस कविता तू रह जायेगी बनके मेरी मिथ्यायनी
तेरे लोभ में हुआ मेरा जीव पथभ्रष्ट ओ दामिनी
कि तत्व ज्ञान के महंत भी लगे कल्पना विनाशक,
अब तेरा प्रभाव है इतना मेरी इंद्रियों में वज्रसार,
मेरी मत्स्या अब विष भी बरसे बनके संजीवनी
कल्पा तुम अपनी जटाओं में भरना अमृत वाणी
करके मेरे रिक्त मन का जग में निर्लज शंख नाद,
फिर संभव तेरे स्त्राव में बह जाएँ अनेक प्रतिबन्ध
और तू मिथ्या बन जाये मेरी सृष्टि की जीवन संगिनी...
स्त्री-स्तन : जीवन अनंत ( चित्र: Viktori Rampal Dzurenko)
अर्धनंगी लड़कियों के नृत्य से मोहित होता
वह नीति-परिनीति से भरा सामाजिक पिशाच
अक्सर स्त्री स्तन का यूँ स्पष्ट चित्रण देख
अपने पुरुषार्थ के आवेग में अधीर हो जाता
फिर कुंठा के मल से चित्रकार को कलंकित कर
वह मिथ्य-ज्ञानी सांसारिक निपुणता को भोगता,
परन्तु यह नगनता से प्रतिकूल होता जीव
भूल जाता समूर्ण सृष्टि में अपने अस्तित्व को
जो विडम्बना से उसी स्तन की नीव से बना है
जिसके श्वेत नीर का आनंद निशब्द यथार्थ,
वह जिसके तत्व से असीमित जंतु विकसित हुए
और जिसका स्वरुप वाहिकाओं में अमिश्रित है,
वह प्रेम का मृदु पात्र जो निस्वार्थ भावना लुप्त,
सभी उदासीनता को अपने कोमल मर्म में छुपाता
जिससे प्रेमी की निराशा क्षणभंगुर रेह जाती
और रह जाता सिर्फ ममत्व का रसातल,
फिर भी ओ निपुणता के स्त्राव में फंसे तुम
मेरे इस चित्र को अभद्र घोषित कर देते हो,
यह कैसा तुम्हारा दोगुना मानक बुद्धिजीवी,
कि जीवन उत्तेजक को ही अवरोधक मान बैठे
और कला को अभियक्ति का पित्त केह दिया,
यह पित्त नहीं तुम्हारी संकीर्णता पे वार है,
रक्त रंजित विरोध है इस नैतिक अश्लीलता पर,
जो ब्रह्माण्ड में तुम्हारी मनोवृत्ति के बीज को,
सृष्टि की उर्वरता हेतु सदेव खंडित कर देगा...
यत्र-तत्र (तसवीर: वृत्तचित्र 'सो हेदान सो होदान द्वारा Anjali Monteiro & K.P Jayasankar)
मेरे अपराधों के लिए ?
जब यत्र, तत्र, सर्वत्र,
मैं बंदी हूँ,
और स्वतंत्रता -
एक मात्र मोहभंग,
फिर मुझ पर क्रोधित
मेरा आतुर जीव -
निषेधित अपनी कुंठा में,
मूर्ख !
ग्रस्त इस मोह में,
जिसका स्व भाजित सर्व तंत्र से,
और स्वतंत्रता -
एक अभिलाषित पिशाच...
नोट : वृत्तचित्र सूफी कवी 'शाह अब्दुल भीटाई' की मोहक शब्दों की विरासत, संगीत पर आधारित एक काव्यगत संयोजन है...
http://vimeo.com/37237448
एक अभिलाषित पिशाच...
नोट : वृत्तचित्र सूफी कवी 'शाह अब्दुल भीटाई' की मोहक शब्दों की विरासत, संगीत पर आधारित एक काव्यगत संयोजन है...
http://vimeo.com/37237448
कलाकार का प्रेम रसातल (तसवीर : Viktori Rampal Dzurenko)
चित्र द्वारा - https://www.facebook.com/pages/Viktori-a-Rampal-Art-Lab/222708664558537 |
प्रिय तुम्हारे प्रेम के रसातल में
शुन्य हो जाता मेरा अस्थिर जीव
और इस दोहरी निपुणता से विरक्त
मेरा कला मन हो जाता अनश्वर
फिर इस सृष्टि के चक्रव्यूह में
सम्मिलित हो जाते मेरे पूरक-प्रेरक
और मोहक होते सर्व कला प्रच्छन्न
जैसे बनके हमारी प्रेम जिजीविषा
नीर ही रघुवीर
जीवन है तू गगन-गगरिया जल,
फिर भी क्यूँ मनु प्रीति निर्जल,
जो बाँटें तुझको मंथन की सीमा,
रह जाए बनके कुंठित शुष्क थल
अनंत अचंभित तेरा यायावर रूप
बनके गुप्त कुसुमित काल स्वरुप,
दोष जो तुझ में डाले ज्ञानी मल,
करे देह-आत्म का मर्म कुरूप
प्रजापति अखंड तेरे सर्व अध्याय
भू आकाल में तेरा न कोई पर्याय,
यदि कभी हो तेरा सृष्टि से लोप,
ओ! वीर-नीर नष्ट है फिर मेरा अभिप्राय
Tuesday, December 10, 2013
जीवन एक अभिव्यक्ति
नन्हे शिशु के पदचापों सी मृदु ओस पर,
कमला से तितली बनती रंगीन दुनिया में,
उस हरीतिमा के आँचल में शून्य स्थिर,
यथार्थ क्षण की स्व कल्पना से विरक्ति,
प्रफुल्लित कलिनी – जीवन एक अभिव्यक्ति
स्वावलम्बी पंछियों की अकल्पित राग ऐक्य में,
श्याम-श्वेत मेघ धारा से सुशोभित पृथ्वी पर
उस निर्मिति की नाभि से उभरती हुई ज्योत संग,
निर्जल वन में यक्ष गान करती मनु प्रीति,
पञ्च-तत्व धारिणी जीवन एक अभिव्यक्ति
Friday, August 30, 2013
दोगुना मानक (तसवीर - कुमार अव्यय)
मानवता पे रेंगता काला साँप है
जो उठता हर सवेरे मोटर के मुख से
हुँकारते हुए नैतिक जुगाली पर
लेके अपने पूंजीवादी नथुनों में गंध,
फिर डमरू पे नाचते दोगुले धर्म दूत
बुद्ध को खट्टास का कूलैंट बनाते हुए
दांत में भींचते अपनी चिथड़ी आज़ादी
और निपुण नग्नता से मुक्त कला को
अभिव्यक्ति का पित्त मान सड़कों पे थूक देते |
उगते सूरज में टहाके लगाती तोंद
संध्या की लाली में चूल्हे पे सूख,
बनकर रिवाज़ों में मग्न हज़ार के नोट
सुधार पर मुट्ठी में धातु का चाँद बन जाती,
फिर चित्रशालाओं में ढूंढते मैना की कूक
प्रचार के बीज वो वृक्ष की आड़ में उगा देते,
और मेरे मोहल्ले के गटर पे नाक सिकोड़ कर ,
वह बुद्धिजीवी वादियों में जा अपने फेफड़े फुलाते |
Sunday, July 7, 2013
दोहे
1. सुख मैं भोगूँ, दुःख तू भोगे,फिर 'ईश' कहाँ से होए,
माटी, मृग, मनु लागे चेतन, वन में चित जो खोये...
2. मल परिमल करिये सुधि जन,ऐसो प्रीत सजाए,
ना राजा भजे ना रंक भजे कागा, जाने ना दोस पराए...
3. ना तेरा रहीम ना मेरा राम हो, पोथी पढ़-पढ़ जग बदनाम हो,
प्रीत पराई से मन कैसो लगाऊँ, जब जन ही जन का हराम हो...
3. ना तेरा रहीम ना मेरा राम हो, पोथी पढ़-पढ़ जग बदनाम हो,
प्रीत पराई से मन कैसो लगाऊँ, जब जन ही जन का हराम हो...
4. भूख ना देखे बासी भात, नींद ना देखे टूटी खाट
मन का मैला निर्मल भया, भूल के प्रेम में जात-पात…
5. लाली खोजन ईश की मैं तो पग-पग जाऊँ,
5. लाली खोजन ईश की मैं तो पग-पग जाऊँ,
मिलो ना लाली प्रीत की, जग सुना ही पाऊँ,
प्रेम की वाणी बोलके मन जो होये सुखिया,
रघुवीरा तोहे छोड़ के, जीव-रीत अपनाऊँ...
प्रेम की वाणी बोलके मन जो होये सुखिया,
रघुवीरा तोहे छोड़ के, जीव-रीत अपनाऊँ...
6. ढाई आखर प्रेम जो पढिया मन का मालिक होवे,
कहत पराया पेड़ जो काटे सब जग छाओं खोवे...
7. लाल लाली लहू से निर्धन मिले ना भात,
भूखा बैरी सोत रहा जो नंगा नंदिये बात...
8. कागा जैसो मन हुआ तो आये घनेरी रात,
रिपु अनमोल बोलिके कबहूँ ना खाए मात...
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