विशाल आकाश की बाहों में डूबी तारों की छावनी,
उसमें शान से अस्तित्व की मोहर लगाता हुआ,
जैसे कोई स्थिर आध्यात्मिक जीव अप्रभावित ,
शायद वो गंगा के सुखद तट पे पुकारती रात में,
अपने पलों को इकठ्ठा करने निकल पड़ा है,
बूँद-बूँद समेटता हुआ किसी महासागर जैसा,
पलकों के कोने में आकर बेठ जायेगा यह घुस्पेटिया |
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