जीवन में जो हम स्पष्ट आँखों से देख सकते हैं, वो ही सत्य नहीं होता, अधिकतर नज़ारे मस्तिष्क दवारा उत्पन्न किये गए मृगतृष्णा होते हैं, जिनके लोभ में इन्सान भावात्मक हो उठता है|हमारी पाँच इन्द्रियाँ मोहित हो कर एक ऐसी मनोकामना को जन्म देती हैं जो सच्चाई से अलग, अकल्पनीय पूर्ति की दिशा में सभी करनी व कथनी को मोड़ देती है|किसी घुड़सवार जैसे यह मनोकामना मनुष्य के विचारों से उत्पन उर्जा युक्ति को काबू कर, मायावी रूप से सुशोभित कर देती है|
"सब चमकती हुई चीज़ें सोना नहीं होती", परन्तु फिर भी हम इस चमक के लोभ में निहत्थे और बेबस हो कर बंदी बन जाते हैं, और एक खिचाव सा भावनाओं पे महसूस होता है, सत्य और भ्रम को न परख पाने की विवशता ही शायद इन्सान को कितनी बार निष्क्रिय स्तिथि में डाल देती है|ऐसी अवस्था में एक अयोग्य इन्सान, अपनी दूषित प्रज्ञा से प्रभावित, स्वयं के ज़मीर से विपरीत कार्य को ही सत्य और अनुशासित बताने के अलग अलग तर्क बनाता है |इसी नकारत्मकता से उत्पन धुंए से इन्सान भ्रमित होकर,मुखौटा पहन अपने ही अस्तित्व की तलाश सम्पूर्ण जीवन करता रहता है|
No comments:
Post a Comment