तुम्हारे कमरे के कोने में चिपकी धूल हूँ मैं,
जिसे तुम्हारे पैर जाने-अनजाने मुसाफिर बना लेते हैं|
लौटने पे तुम्हारी भीगी सी टी-शर्ट की चिपचिपाहट बन,
कई दिनों तक तुम्हारी खुशबू का एहसास करती रहती हूँ|
कभी किसी हवा के झोंके का साथ रहा,
तो मैं धूल तुम्हारे बिस्तर पे जमघट बना लेती हूँ|
इंतज़ार करती की कब तुम नींद में खो,
और मैं चुम्बन बनके तुम्हारे गालों पे चिपक जाऊं|
मैं धूल तुम्हारे नाखुनों में धीट जैसी जमी रहती हूँ,
की जब तुम पहला निवाला लो तो मैं चुपके से,
तुम्हारे शरीर का सफ़र तय करती हुई,
बिना किसी आहट के तुम्हारे दिल में स्थायी हो जाऊं...
2 comments:
बिना किसी आहट के तुम्हारे दिल में स्थायी हो जाऊं... बहुत सुन्दर है
ek bar fir dhanyawad hai aapko :)
Post a Comment