बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ |
सूर्य के शिखर से पहले,
रोज़ नन्हे कदम टुक-टुक गुनगुनाते,
खिलखिलाते स्कूल बैग को देखने,
वो परियों की कहानी का पिटारा,
तरसती बुनियाद उसकी - लत्ता सी वो,
नाजायज़ सी उम्मीद मुट्ठी में बंद,
जायज़ मुस्कान के पीछे छुपी लौट जाती |
टिमटिमाती आँखें - कठबोली में,
"माँ सममित कपड़े मैं क्यूँ नहीं पहन पाती?"
पसंद को तुम्हारी ज़रूरत नहीं,
माँ विषय बदल देती - अट्टहास में,
पर शब्द तो सुइंयाँ चुभा देते,
स्तब्धता को हंसी में बसा लेते |
3 comments:
Awesome Poetry :)
kavita padhkar yaad aata hai gujra zamana bachpan ka...
@Mandan Jha Thank You
@Surya Prakash Pandey har bachpan suhana bana rahe, bas itni si umeed hai :)
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