ज़माने के रिवाज़ों ने मारे मुझ काफ़िर को ताने
कुछ ऐसे वक़्त में तप के बने मेरे अफसाने,
होठों की पपड़ी बनके रह गए मेरे सब अल्फाज़
अब सिर्फ आँखों से बहती है रूह होके गुम्साज़,
शौकिया गम में भी उड़ाते चले हम हंसी के बुलबुले
हमारी ही बेबसी में आये लोग लेके अपने सिलसिले ,
लोगों जला दो मेरी मल्कियत के दिए अपने बाज़ार
इस ज़िल्लत से फिर भी रोशन मेरी उमीदों की मज़हार,
कारवां-ए-ज़िन्दगी पे नाज़ करता अब हाथों का जाम
आईने से रूबरू होता अजनबी पूछे उस अक्स से मेरा नाम...
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