विष्कंभ के मोहभंग से मुग्ध
पथभ्रष्ट मेरा आतुर जीव-दोष,
ढूंढ़ता कितने ही परिवर्तन प्रायः
जीवन गहन के वन्य-कोटर में ।
फिर अदंडित प्राणों की सरणी,
पश्चाताप के विशाल रसातल में
एकीकृत करती अपने स्वयं को
विश्व संघर्ष की परिधीय पर ।
अतः बनके मनुष्यता का यथार्थ,
स्थानिकता से होता स्थान का विच्छेद
तत्पश्चात बनके गुण पूरक-प्रेरक
करते 'दोष' से 'जीव' का पुनर्जागरण ।
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