झंकार उठती है समय के गुमशुदा अंतराल में,
जगाता कोई अपने अस्तित्व में डूबे तेरी नींद को,
एक आवाज़, कर रिवाज़ों को नरक दंड में स्वाहा,
संकोच त्याग, पकड़ अरमानों की पगडंडियों को,
शैतानी रूप ले मेरे मन और लगा ठहाके संसार पे,
जगा जो तू आज,क़त्ल न होने दे तेरी अनकही का,
हिंसक कर सहमी सोच,चाहें नाजायज़ उसकी राह,
जो न हो जुनून, हर पल कर खुद का दाह संस्कार...
No comments:
Post a Comment