मैं सिर्फ 'मैं' हूँ,कोई और क्यूँ नहीं?
लेकिन उससे क्या होगा?
मेरे दिल के ख़ामोश लम्हे -
मेरे जीवन में 'मैं' के उद्देश्य का,
रद्दी भर भी एहसास कर पाएंगे?
मैं सिर्फ पहचान सकती हूँ -
स्वयं की सीमाओं को,
किसी और रूप में ढल भी जाऊँ,
परंतु कैसे भावनाएं समझेंगी -
मेरे अस्तित्व में छुपी,
मान्यता देती 'मैं' की असुरक्षा को ?
मैं, लेती एक निर्णय - 'मैं' नहीं रहती,
फिर देना इस छद्दा रूप को
मेरे व्यक्तित्व के सत्य का परिचय,
अगर मैं हो जाये दफ़न -
इस गलत पहचान के मलबे में,
फिर से क्या मैं की आत्मा -
अपनी परिकल्पना खोज पायेगी?
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