कोहरे में कंपकपाती रात,
एकांत में दस्तक देती,
स्वयं को खोजती आई,
मेरे दरवाज़े पर सिमटी हुई -
क्लांत भावनाओं से |
श्रृंगार से सुशोभित काली स्त्री,
एकांत में दस्तक देती,
स्वयं को खोजती आई,
मेरे दरवाज़े पर सिमटी हुई -
क्लांत भावनाओं से |
श्रृंगार से सुशोभित काली स्त्री,
अपने स्याहपन के इकहरे आवरण में,
फिर सींचती मेरे शब्दों को,
चाँद पर बिखरी गोधूलि से
और खुरचती प्रत्यय पर फैले ज़हर को|
शायद अपने जैसी वंचित,
मुझे व्यर्थ समझती हुई आई,
ले जाने तारों की छावनी में,
जहाँ इश्वर तैरते हैं,
नींद और स्वप्न की नगरी के संगम पर|
फिर सींचती मेरे शब्दों को,
चाँद पर बिखरी गोधूलि से
और खुरचती प्रत्यय पर फैले ज़हर को|
शायद अपने जैसी वंचित,
मुझे व्यर्थ समझती हुई आई,
ले जाने तारों की छावनी में,
जहाँ इश्वर तैरते हैं,
नींद और स्वप्न की नगरी के संगम पर|
No comments:
Post a Comment