रात की अवैध सिलवटों के समक्ष,
किसी अन्तराल के मोहभंग में गुम,
न जाने क्यूँ मेरी आत्मा भटकती है,
नंगेपन के वशीकरण का प्रयास कर,
निरर्थक शुधि का अस्तित्व ढूंढ़ती हुई ।
यत्र, तत्र और सर्वत्र मैं बंधी बन जाती,
और वैश्यावृत्ति की सरणी में गोपनीय,
मानव अपराधों के रसातल का उपग्रह,
मेरा नश्वर शरीर मेरी गौण आत्मा पर,
नग्न-बोधक चिह्न को उत्कीर्ण कर देता ।
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