जब तक गुप्त है मेरी विकराल आत्म वेदना,
सशक्त है वो अनगिनत तिरस्कृत दीवारें,
जिनके गुम्बज में दौड़ता संसार का संतोष,
और नीव में बसा मौन-संदेह बनके अनंत-राग
जब तक लुप्त है मेरा अनुचित सत्य रूपांतर,
सम्पूर्ण हैं वो अनंत कुंठाग्रस्त वादियाँ,
जिनकी प्रतिध्वनि में गूंजती मनुष्य अछूता,
और श्री में बसा अलगाव बनके आधुनिक-विषाद
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