हे राजधानी !
तेरी छावनी में,
तेरे अस्तित्व से बचके,
निकलते हैं जीव चरने को,
अकेलेपन के तिनके,
और छोड़ जाते,
सूखी आत्मा और भीगे हाथ|
हे राजधानी !
न कर गुरूर इतना,
रह जायेंगे मूल तेरी चौखट पे,
कुछ पंछी अटल,
अपने पंखों पे लिए,
सरकती दुआएँ...
(चित्र: धीरज चौधुरी)
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