Wednesday, August 3, 2011

"जूठन"



मायूस ,बेबस चुपचाप खड़े हुए,
ललचाई नज़रों से ख़ाली करता वो,
वाइट कॉलर वालों का जूठन,
मजबूरी उसकी 4000 प्रति महीने की आमदनी
फिर वही सोच क्या आज घर में रोटी बनी ?




प्लेट में पड़ा वो पुलाव, आधी मिठाई,
दो वक़्त की रोटी के लिए लड़ाई,
ललचाई नज़रों से खाली करता वो,
वाइट कॉलर वालों का 'जूठन ',
और नाउम्मीदी  के संग सफ़र तय करता राही ।




पहला निवाला लेते ही,मुंह सिकोड़ के,
लोगों का कहना "यार बेकार खाना है",
यह देख अपनी क़िस्मत से नाराज़,फुन्फुनाते हुए,
ललचाई नज़रों से खाली करता वो,
वाइट कॉलर वालों का 'जूठन ' ।