Monday, November 28, 2011

प्यासा सावन




पलकों पे गिरती बारिश की बूँदें मुझसे कहतीं,
मेघ की रिमझिम से पहले क्यूँ भीगी है तू,
कुछ चंद मोतियों को अपनी हथेली पर लेकर,
उन बीते हुए लम्हों के आँचल में फंस जाती,
याद है उस बरस भी सावन के झूले पड़े थे,
गीली मिट्टी की ख़ुशबू से महकी थी हवा,
आज भी सावन के झरोखे मुझे घेरे हुए हैं,
पर आज काँटों से भरा है इनका आँचल,
भीग गयी कायनात आज फिर एक बार,
न जाने मेरी रूह क्यूँ रह गयी प्यासी?



Thursday, November 24, 2011

साया















पार्क की बेंच पर बैठी 
वो हल्के भूरे गेसू वाली,
सफ़ेद परिधान में 
अपनी ज़ुल्फों को सहलाती,
उस बे-रंग में वह सुंदरी जैसे 
कोई भ्रम या छलावा हो,
एक परी जो अपनी लटों में
धूप के मोती पिरो रही हो,
शायद वो गुज़री रात के पलों का 
एक छल थी, एक सपना,
जो सांसों की सौदेबाज़ी के बाद 
मुझे नज़र आ रही थी |


आते - जाते लोगों को वह
अपनेपन की नज़र से देखती,
जैसे सब किसी रंगीन कल्पना के पात्र हों,
उसके पंखुड़ी जैसे होठ
जीवन का फ़लसफ़ा बोल रहे थे,
एक नीरस सा रंग
उसके होठों से टपक रहा था,
कुछ बेचैन हो के अपने रस्ते का रुख
मैंने उसकी तरफ मोड़ा
नयनों की आँख मिचौली जब टूटी
सीने में कम्पन उठ आई |


उसकी काली आँखों में एक खालीपन था
जैसे कोई काला साया हो,
वो साया शायद हंस रहा था
गुज़री रात के उन निरदई पलों को याद कर,
उन सांसों का हिसाब मांग
मेरी रूह को उसने वस्त्रहीन कर दिया था, 
गाड़ियों के शीशों पर टिमटिमाती धूप ने
उसका ध्यान मेरी और खींचा,
समय और जीवन का वो शतरंज का खेल 
उसे रोकना पड़ा अचानक |



समय को हराने के ख्याल से शायद 
उसने मुझसे उस दिन टाईम पूछा था,
घड़ी की सुईयों का इंसान की सांसों से
अजीब सा मेल उस दिन समझा मैंने,
काले साये के समय-चक्रव्यूह में,

निहत्था खड़ा था मैं,
अरसे बाद अपोज़िट सेक्स के बोल ने
एक पत्थर को झंझोड़ दिया था |

उस शब्दावली ने मुझे आखरी जाम
की तरह बेबस कर दिया,
उसके सवाल का उत्तर 

मैं अफ़सोस से दे नहीं पाया,
मेरी बदकिस्मती का शिकार 
एक बार फिर मेरा सपना बन गया,
चंचल सी हँसते हुए उसने पूछा, 
"आप समय के पाबंद नहीं?"
जीवन-मृत्यु को तराज़ू पर तोलने वाला 

समय का इल्म क्या जाने?
पर आज समय से गुज़ारिश कर,
मन सपनों के  टुकड़े समेटने लगा ।