Monday, February 13, 2012

ख्वाब



ख्वाब पुर-असरार फिरते पंछियों का रेहनुमा आवारा,

उनके परों पे बैठ मेरे दिल का आहंग लेके आया,

बहारों से मुकरर होता तकदीर-ए-फल्सबा का ग़ुलाम,

वाज़-ए-बू बनके रह जाता मेरी उम्मीद में आके पैदार,

फिर नूम तावाज़ा होती मेरी रूह इसके जादू में बहबूद,

गुमनाम दस्तक देती रहती इसकी मिठास को माज़ी,

आहिस्ता मेरे रक्त के गलीचे का शबनम बन जाता,

बेखुब चुप्पी साधे सुबह की आयातों से रूबरू होता हुआ,

खालिद मुझसे पूछता "मेरी मंज़िलों की कौम क्या है?"

सपना


                                            

विशाल आकाश की बाहों में डूबी तारों की छावनी,

उसमें शान से अस्तित्व की मोहर लगाता हुआ,

जैसे कोई स्थिर आध्यात्मिक  जीव अप्रभावित ,



समय के अनन्त प्रवाह में बहता चला जा रहा हो,

शायद वो गंगा के सुखद तट पे पुकारती रात में,

अपने पलों को इकठ्ठा करने निकल पड़ा है,

बूँद-बूँद समेटता हुआ किसी महासागर जैसा,

पलकों के कोने में आकर बेठ जायेगा यह घुस्पेटिया |