Tuesday, April 24, 2012

भ्रष्टाचार का मलबा



रोज़ की दिनचर्या की यात्रा के समय जब भी मेरी नज़र स्थानीय रेलवे स्टेशन या बस स्टॉप पर बेचे जाने वाले अख़बार या पत्रिकाओं पे पड़ती है उसमें एक प्रमुख खबर मेरा ध्यान चुम्बक की तरह अपनी तरफ आकर्षित कर लेती है | चोर नज़र से बिना उस खबर की खरीदारी किये जब उसे पढने की कोशिश करती हूँ तो नज़र सबसे पहले एक साधारण कद - काटी वाले एक वृद्ध मनुष्य पर पड़ती है, लोग इन्हें देश विदेश में "लोकपाल विधायक - अन्ना हजारे" के नाम से जानते हैं|गांधीवादी गुण के साथ अन्ना हज़ारे को संदर्भित किया जाता है, समाज से भ्रष्टाचार की गंदगी के उन्मूलन के लिए युद्ध स्तर पर इन देवता पुरुष ने अपनी कमर कसी हुई है| परन्तु न जाने क्यूँ उनकी इस आकांक्षी समाज की तस्वीर मन में न जाने एक बेचैनी, एक अल्हड़पन सा महसूस कराने लगती हैं शरीर में, जैसे ये सब एक मृगतृष्णा है या फिर एक ब्लैक होल| 

अन्ना जी और उनके नेक काम के प्रति पूरे सम्मान के साथ, सकारात्मक हूँ परंतु यह भ्रष्टाचार का गोबर यदि सीमेंट के सामान मज़बूत रूप ले कर हमारे दिल, दिमाग और आत्मा में घुस्पेटिया बनके बैठ जाये, तो इस परेशानी का निवारण कैसे किया जाये? हर सामान्य एवं असामान्य व्यक्ति जो अपनी जीवन शैली की सीमाओं में तल्लीन है और जिसका अस्तित्व ही शायद इस भ्रष्टाचार में घुल मिल गया है, वो इसके दुष्कर्म का आभास किस प्रकार से कर पायेगा, यह मेरी प्राकृतिक समझ के बाहर है|

इडियट बॉक्स यानि टेलेविज़न पे चैनल बदलते वक़्त अकसर नज़र जनता जनार्दन के किसी दूत की बुलंद आवाज़ की तरफ खींची चली जाती है, जो की अपनी आवाज़ के शीर्ष पर चीख कर यह बताने की कोशिश कर रहा होता है कि "लोकपाल बिल जल्द ही पारित हो जायेगा और आज़ादी के संघर्ष का दूसरा आन्दोलन भारतीय संविधान में चिह्नित किया जायेगा|" अगर इस कथनी अथवा करनी के सफल समापन में ज़रा भी सच्चाई है तो मैं पूरे देश को बधाई देना चाहूँगी परंतु एक सवाल जो मैं सबके समक्ष प्रस्तुत करना चाहती हूँ, वो यह कि "क्या ये विधेयक हमारे देश को डीमक कि तरह कुतरती बुराइयों की कमी को सुनिश्चित कर पायेगा?"

भ्रष्टाचार के बारे में लोगों की आम राये अवैधानिक ढंग से अपना वैध काम कराने के लिए पैसा देना है|जिसकी असहमति और शायद परिस्तिथि के अनुसार सहमति पे, टिपण्णी देने वाले अनेकों सज्जन हमारे देश में रहते हैं|लेकिन वो अन्य मुद्दे जो असलियत में एकत्रित होके इस बड़े कूड़े के ढेर, यानि भ्रष्टाचार को इजाद करते हैं, उनकी तो यह महारथी अपेक्षा ही कर देते हैं| उदहारण के लिए, ऑटोरिक्शा में बैठ के अपने गंतव्य तक जाने के लिए कई बार आपको वैध किराया देना पड़ता है, पर आप इस दबंग बाज़ी के आगे निहत्थे हैं क्यूंकि आपके दिमाग में उस समय सबसे महत्वपूर्ण बात ये चल रही होती है कि किस प्रकार शीघ्र अपना कार्य शुरू करें|इस कारण वश आप बिना अपनी मानसिक शांति के साथ समझोता किये बिना वो चंद Rs.4 से Rs.5 भी देना वैध समझते हैं| तो अगर भ्रष्टाचार कि सामान्य परिभाषा को माने तो यह उदहारण एक दम सटीक बेठता है और ऐसे ही छोटे छोटे वास्तविक जीवन के उदहारण मिलके भ्रष्टाचार के द्वारा देश को खोखला बनाते हैं|ऐसे ही अगर आप किसी नए शहर में जाते हैं वहां कि भाषा, स्थानों और नियमों के प्रति आप अनजान और अनभिज्ञ महसूस करते हैं और अपने ही देश में आप पे विदेशी कि मोहर लगा दी जाती है| आपको इस नज़र से देखा जाता है जैसे आप किसी दुसरे गृह से पृथ्वी लोक पे आये हैं, शायद इस तुलना में भी राकेश रोशन जी कि फिल्म में अजनबी जीव 'जादू' को ज्यादा सम्मान से संबोधित किया जायेगा, यदि वो पृथ्वी पे सत्य में प्रकट हो जाता है|यदि आप अपने लिए कुछ बुनियादी सामान खरीदने जाते हैं, जैसे फल -सब्जी या राशन तो आप का किसी तिलस्मी माइक्रोस्कोप से मुआइना करते हुए दुकानदार आपके विदेशी होने को भांप लेता है और अचानक आपके लिए सभी दाम उच्च स्तर पे पहुँच जाते हैं और हिम्मत करके पूछने कि चेष्टा भी करें आप तो जवाब तुरंत मिलता है वो ये कि "यहाँ हर जगह ये ही दाम है"| आप असहाय और मजबूर हैं, आप एक - दो जगह और कोशिश करते हैं पर निराशा वश आपको अवैध पैसों को दे कर अपनी जीवन की गाड़ी को चलने के लिए वैध सामान खरीदना पड़ता है|

बाकि अन्य छोटे परंतु मुख्य मुद्दों का सूचीकरण देना अनिवार्य नहीं क्यूंकि तथ्य ये है कि इन पर बात या टिपण्णी करना भी व्यर्थ है| असल मैं ज़रूरत है इन भ्रष्टाचार के उपाख्यानों के प्रति एक ठोस समाधान निकालने की, क्यूंकि क्रिया में शब्दों की तुलना में अधिक बल होता है| व्यक्तिगत रूप से मैं ये ही कहना चाहूँगी की खाते-पीते, सोते-जागते मैं स्वयं को इस भ्रष्टाचार के गू में फंसा महसूस करती हूँ और अगर स्वयं मल पारित क्रिया की तरह इससे भी छुटकारा पाने का प्रयास करूँ तो अचानक कब्ज़ से पीड़ित होने का एहसास सा दिमाग और आत्मा में होने लगता है|