Tuesday, January 24, 2012

दाह-संस्कार





झंकार उठती है समय के गुमशुदा अंतराल में,
जगाता कोई अपने अस्तित्व में डूबे तेरी नींद को,
एक आवाज़, कर रिवाज़ों को नरक दंड में स्वाहा,
संकोच त्याग, पकड़ अरमानों की पगडंडियों को,
शैतानी रूप ले मेरे मन और लगा ठहाके संसार पे,
जगा जो तू आज,क़त्ल न होने दे तेरी अनकही का,
हिंसक कर सहमी सोच,चाहें नाजायज़ उसकी राह,
जो न हो जुनून, हर पल कर खुद का दाह संस्कार...

दिल...



हुस्न-ए-पतझड़ की हमाकत सा दिल,
अंगारे तालुक में सुलघ्ता सा दिल,
कातिल है मेरे अरमान-ए-ख़ास का?
फिर परिंदा ख्वाइशों पे उड़ने की जिद्द,
डूबने चला फिर ख़्वाबों के सराब में,
तर्बिअत पाज़ीर पतझड़ में क्या तलाशे?
भीगा जब हर लम्हा तक्दीस-ए-फरहत में...