Thursday, June 27, 2013

गंगा का स्त्रोत एक लिंग नहीं (चित्र : द्वारा गोगी सरोज पाल)



तुम्हारी जटाओं में बहती गंगा बन
चेष्टा की थी मैंने जीवन कोपलों को
प्रेम की आड़ में अंकुरित करने की,
पर हे पुरुष तुम्हारी कुंठा से सजा था,
अपने ही लिंग बोध में लुप्त आवेग ।

तनुकृत करने लगी मेरे स्वयं को
तुम्हारी वो दुर्बल पुरुषार्थ त्रासदी
नियंत्रित अपने क्लांत प्रवाह में,
परंतु एक लिंग तेरी प्रोढ़ता की चोट,
नहीं लपेट पाई मेरे अस्तित्व को ।

मैं समर्थ रही अमूर्त कारावास से,
अपने मनोबल को सशक्त करने में,
और प्रतिशोध किया मेरे नारीत्व ने,
फिर अभित्रस्त करके तुम्हारा वीर 
बह चली गंगा संसार की प्रफुल्लता में,
तुम्हारे लिंग स्त्रोत से मुक्त होती हुई ।