Tuesday, May 29, 2012

2 मई 2012 को दैनिक जनवाणी में प्रकाशित मेरा लेख - 'चटपटी नज़र का बेस्वाद भारत'



कल कई सालों बाद अपने शहर मेरठ के दर्शन करने का एक अप्रत्याशित परंतु सुखद अवसर मिला था| सुबह से आबू लेन की चाट का चटपटा और नमकीन ज़ायेका मुंह में भूख के फुव्वारे चोढ़ते हुए पेट के गुम्बज में तीव्रता से चक्कर लगा रहा था | बहुत आशावान और उत्तेजित होकर शाम करीब 6-6:30 बजे निकल  गयी थी अपने उसी पुराने चटोरेपन के अड्डे पे, मेरी घड़ी शायद समय से पहले चल रही थी परंतु उस उत्सुकता और बचपन के मधुर विषाद के आनंद ने मुझे वहाँ उन चाट वालों से भी पहले पहुँचा दिया था | इंतज़ार एक ख़ुशी का अनुभव होता है ये बात सोच के ही मैं बड़ी बेसब्री से उन चाट वालों का इंतज़ार कर रही थी | ना जाने क्या जादू सा उनके हाथों में होता है कि जैसे भ्रमांड के सभी स्वाद उस पापड़ी चाट या आलू टिक्की चाट में ख़ुशी से समा जाते हैं | करीब आधा घंटा बीत गया और कोई हरकत शुरू नहीं हुई थी और ना ही कहीं दूर से मुझे कोई चाट वाला अपनी रेड़ी लाते हुए दिखाई पड़ रहा था | थोड़ा संशय में पड़कर मैंने आस-पास के लोगों से उन चाट वालों के बारे में पूछना शुरू किया, इस जवाब की उम्मीद के साथ कि चाट वालों के इस दैनिक काम का समय और स्थान बदल चूका है | कई लोग बिना कुछ कहे या भद्दी सी शकल बनाते हुए बिना कुछ कहे वहां से चले गए | कई लोग मेरे इस प्रशन पर धीमी पर प्रमुख अठ्हास कि आवाज़ निकालने लगे जैसे मैंने किसी काल्पनिक वास्तु या विलुप्त जीव के बारे में पूछ लिया हो | आखिर में एक सज्जन ने मेरी बेबसी को भांपते हुए मुझे स्पष्ट शब्दों में बताया कि काफी समय से अब वहाँ कोई चाट वाला नहीं खड़ा होता, दरसल किसी उच्च प्रोफाइल वाले जनता के सेवक ने ही उन्हें वहाँ से हट जाने का आदेश दिया था | बस जैसे ही यह शब्द कानो पे पड़े मुह सिकोड़ गया और पेट का गुमबज गुस्से में अजीब सी आवाजें निकलने लगा | अपने अतीत में वापस जाके फिर से अपने बचपन को जीने कि इच्छा जागृत होने लगी, जिसके द्वारा मैं अपनी युवा अवस्था में आने पर, मेरे चाट जैसे विभिन्न स्वादों और आकृतियों वाले शहर को इस क्रूरता से बदल देने वालों का विरोध कर सकूँ |



पर वो कहते हैं ना कि वास्तविकता कल्पना से अधिक विचित्र होती है, इस कारण से मुझे अपना यह मुर्खता से पूर्ण ख्याल उन चाट वालों के कल्पित और गोपनीय स्वाद में दबाना पड़ा | आज अपनी इस अधूरी इच्छा से भी ज्यादा दुख, ग्लानी और आश्चर्य मुझे मेरे देश में होने वाले व्यर्थ के बदलावों पे हो रहा है | ऐसा लग रहा है जैसे मेरा देश नहीं कोई मिट्टी और लकड़ी से बना बेजुबान पुतला हो जिसे हर बार लोग अपनी सुविधा के अनुसार बदलते रहते हैं और भूल जाते हैं इस धरती में उगते सच्चे तत्व और अतुल्निय गुण | जहाँ देखो बदलाव ही नज़र आ रहा है कभी चीज़ों के रूप में नहीं तो कभी इंसानों के रूप में | पुरानी चीज़ों का या तो नामोनिशान मिटा दिया गया है या फिर उन्हें नया रूप देकर और नयी पैकिंग में डाल के पूंजीवादी अर्थव्यस्था का सुविधाजनक और फ़र्ज़ी हिस्सा बना दिया जाता है | "परिवर्तन अनिवार्य है" ये बात सौ प्रतिशत उतनी ही सत्य है जितना कि वो बिछड़े हुए चाट के ठेले परन्तु यह परिवर्तन अफ़सोस से कुछ वर्गों एवं स्थानों तक ही सिमित रह कर अन्य सभी को रेगिस्तान में पड़े कंकाल कि तरह विकास और वृद्धि से वंचित और सूखा छोड़ जाता है | भूमंडलीकरण और नवीनता अवश्य हमारे देश को विकासशील देश से विकसित देश कि तरफ बढ़ाते हुए प्रगतिशील बनाने में पूरा योगदान दे रहे हैं | इसका विभाजन करने पे जो 'भू' और 'मण्डली' शब्द निकलते हैं उसमें क्या उतनी ही क्रम्किता है, जितना कि हमारे देश के बाहरी चित्र पर नयी पैकिंग में पुरानी मिठाई के रूप में नज़र आती है ?

दोहरी आमदनी और तेज़ी से जीवन व्यतीत करने वाली नयी पीड़ी तो शायद चीज़ों का असली और नस्लीय मूल ज्ञात ही नहीं होगा और गैस चूल्हे पर सिकती रोटी का स्वाद रेडीमेड भोजन के प्लास्टिक की गंध में खो गया है | भूक मात्र एक कैप्सूल में परिवर्तित होती जा रही है, एक परमाणु बोम्ब की तरह लम्बे समय तक विस्फोटक रहने वाला कैप्सूल | रोटी, कपड़ा और मकान केवल गरीब वर्ग का नारा है पर यह छोटे और पिछड़े लोगों का अस्तित्व गैर और महत्वहीन बनके, एक मृगतृष्णा ही रह गया है |

नवोन्नत वर्ग की इस विनिर्देश से बचने का प्रयास करते हुए शायद मैं अपने पुराने महत्वकान्षाओं से परिपूर्ण (‘हम होंगे कामयाब’ गीत की सच्चाई वाले)भारत के दर्शन सिर्फ कहानियों और कविताओं में ही कर पाऊँगी | रही बात चाट के चटकारों की, वो तो अब बचपन के दिनों की यादों वाली सुरंग में, अनैच्छिक या समय की पाबंदियां हटने पर स्वैच्छिक तरीके से, भटकने पर ही मिल पाएंगे |