Thursday, June 28, 2012

वाणी का अस्तित्व

(तस्वीर - द्वारा सोनू कुमार, फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्युट ऑफ इंडिया, पुणे)

क्यूँ है मेरी वाणी?          
शब्दों के लिए,
या भावनाओं के लिए,
कौन सुनता है?
इन शब्दों को,
कोई मित्र,
या कोई अजनबी?,
या वह भंग हो जाते
इस ब्रह्माण्ड में?

क्या है वाहन,
इन शब्दों का?
श्वास में छिपी वायु?
और भावनाएँ
किस प्रवाह में?
दिशाहीन -
शब्दों से वंचित,
वायु कि स्मृति में,
अब एक अजनबी -
अनगिनत शब्दों कि |

मेरे श्रोता खोजते
मेरे शब्दों को,
मेरी भावनाएँ खोजें
अपने श्रोता को,
तत्पश्चात गुप्त है-
कारण मेरी वाणी का,
इन हवाओं में खोजता
मिश्रण शब्दों का -
श्रोता से -
अंत में स्थायी भावनाओं से |

Wednesday, June 27, 2012

महाचित्र (सन्दर्भ - गैंग्स ऑफ वासेपुर)






जब से मैंने ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर" देखी है मेरी चर्चा प्रवत्ति इस फिल्म की श्रेणी की गुत्थी सुलझाने में अस्थिरचित्त महसूस कर रही है, मैं इसका सारांश अपने जानने वालों को एक महाकाव्य के रूप में दूँ या फिर इस पर एक मसाला चलचित्र का ठप्पा लगा दूँ | हालाँकि जब भी कोई फिल्म बनती है उसका मुख्या उद्देश्य जनता जनार्दन का मनोरंजन करना ही होता है इसलिए मैं इस फिल्म कि श्रेणी के लिए एक नए सुविधाजनक शब्द का निर्माण कर रही हूँ ‘महाचित्र’ | फिल्म के निर्देशक बहुबली अनुराग कश्यप जी क्षेत्रवाद के माध्यम से अपना मनचाहा दिखाके सिनेमा कि नयी तरंग के मास्टर अवश्य बन गए होंगे परन्तु उस कहर का क्या जो इस ‘महाचित्र’ के द्वारा दर्शकों के विचारों कि व्याख्या में आत्मसात हो गया है | थिएटर से बाहर निकलते समय सबसे सामान्य स्टेटमेंट जो लोगों को कहते सुना वो यह था, ‘फिल्म ने कन्फ्यूज कर दिया’ | मनोरंजन का भी हमेशा कोई न कोई वैध तर्क होता है नहीं तो मनोरंजन फूहड़ और दर्शक मुर्दा कौम हो जाती है और अपनी सबसे बड़ी समीक्षक को ऐसी उलझन में छोड़ देना सिनेमा का साढ़े सत्यानाश कर देना है |

जैसा कि कहते हैं कि हर बात के विभिन्न कोण होते हैं वैसे ही इस ‘महाचित्र’ का अपना ‘गुड, बैड एंड अगली’ रूप है जिस पर इस फिल्म से जुड़े हर सदस्य को गर्व होना चाहिए फिर चाहें आलोचना के दिग्गज इसका विभाजन करके इसकी धज्जियाँ ही क्यूँ ना उड़ा दें | अगर सिर्फ कहानी और पटकथा पर ध्यान दें, जिसका श्रेय सचिन लाडिया, अखिलेश, ज़ीशान कादरी को जाता है, तो यह अवश्य प्रशंसा के योग्य है जिसमें कोयले कि खान में पनपती रुखाई से इजाद होती कहानी किसी के बदले कि गाथा बन जाती है जो समय के साथ उन खानों जैसी सख्त हो गयी है और सत्य ही तो है कि प्रतिशोध कि जड़ें हमेशा प्रकृति कि गोद में कहीं छिपी रहती हैं और समय के साथ जैसे प्रकृति परिवर्तन लेती है प्रतिशोध भी हमारे जीवन में विभिन्न रूपों में स्थायी हो जाता है | इन्ही कोयेलों कि खानों में निर्देशक अनुराग कश्यप सिनेमा के सौंदर्यशास्त्र का हीरा खोजने गए थे परन्तु अत्यधिक कामुकता, अश्लील संवादों, रक्तपात ने इस 

फिल्म में बदले के सार को एक मज़ाक का रूप दे दिया | जिस क्षेत्र कि ये फिल्म है वहाँ ऐसी क्रिया और प्रतिक्रिया बहुत साधारण बात है परन्तु यह निर्देशक का काम है देखना कि कौन सी बात या कहानी किस तरह से और किस मात्रा में लोगों के समक्ष परोसी जाये क्यूंकि आप शायद नहीं चाहते हैं कि आपके दर्शक यानि प्रशंसक खंडित हो जाएँ | फिल्म में यदि पियूष मिश्रा जी का व्यवधान कथन नहीं होता तो शायद दर्शक थिएटर से बहार निकल कर रिक्त अवस्था में होते और विवरण का उपयोग पटकथा और निर्देशन में बहुत समझदारी से किया गया है, इसलिए यह एक और कारण 
है इसे ‘महाचित्र’ का नाम देने के पीछे |

कलाकारों में सब ने लोहा गर्म देख कर अपनी अदाकारी का हतोड़ा मारा है चाहें हो मनोज बाजपाई, पियूष मिश्रा, जैसे मंझे हुए कलाकार हों या फिर समीक्षाओं में कम चर्चित नवाज़ुद्दीन’ सिद्दीकी, जयदीप अहलावत | मनोज बाजपाई का नाम अब कला के दिग्गजों में रख देना चाहिए क्यूंकि अब वो वास्तव में किसी बहुबली या जीनियस से कम नहीं| निर्देशक तिग्मांशु धुलिया के अभिनय ने उनकी प्रतिभाशैली में चार चंद लगा दिए हैं और यह बात कोरे कागज जितनी साफ़ है कि वो एक अच्छे निर्देशक के साथ-साथ एक अच्छे कलाकार भी हैं| फिल्म कि अभिनेत्रियों ने भी अपनी कला का परचम पूरी जोर से लहराया है क्यूंकि अगर नगमा खातून यानि रिचा चड्डा नहीं होंतीं तो सरदार खान शायद प्रतिशोध में गुप्त अपनी निष्ठुरता का दम शायद दुश्मन को नहीं दिखा पाते | सभी कलाकारों के 

अभिनय पर ज़ोरदार तालियाँ बजाते हुए एक बात मैं ज़रूर कहूँगी कि फिल्म के मुख्य पात्र शाहिद खान (जयदीप अहलावत) हैं जिन्होंने इस बदले कि भावना कि नीव रखकर इस फिल्म का आरम्भ किया और इसका विस्फोटक अंत फैज़ल खान (नोवाज़) कि चुप्पी में पनप रहा है जो दूसरे भाग के मुख्य पात्र हैं क्यूंकि कोयले कि खानों में कोयला और उससे निकलता हीरा ही असली मूल्य रखता है | दर्शक अवश्य अभिनेता कि पूर्वकल्पित छवि से बहार निकल गए होंगे कि अच्छा अभिनेता होना मतलब यह नहीं आपका रंग गोरा हो, आप गीत गायें, आप डोलें उठायें तो आपकी कमीज़ फट जाये इतियादी | बस एक ही कमी खली कि किसी कि भी अदाकारी आम जनता कि भावना को प्रज्वलित नहीं कर पाई और थिएटर में मुझे वाह वाही कि जगह निंदा भरे ठहाकों कि गूँज अधिक सुनाई दे रही थी | फिल्म के संगीत ने एक नयी तरंग को जीवित किया है पर यह तरंग जीवन भर का संगीत नहीं बन सकती | चाहें गाना ‘इक बगल में चाँद होगा’ हो या ‘वोमनिया’ ये शीघ्र ही अपने जीवन काल के ब्लैक होल में पहुँच जायेंगे | जिया रे बिहार के लाला गीत को फिल्म के अंत में दिखाने का वैध कारण मुझे नहीं ज्ञात होता क्यूंकि भला किसी दमदार 
व्यक्ति की इतनी उदासीन मृत्यु दिखाते वक़्त आप ऐसा मनमौजी गाना क्यूँ सुनाना चाहोगे ? गानों के बोल एकदम ज़बरदस्त हैं और गीतकारों कि गेय भावना पूरी तरह सराहनीय है परन्तु आज से 5 साल बाद लोगों को धुन गुनगुनाने के समय सिर्फ संगीत याद रहेगा बोल नहीं और इन गीतों में संगीत के श्रोता बहुत सिमित हैं और अच्छा गाना तो वो होता है जिस पर हर कोई गुनगुनाये या सबके पैर थिरकें |

निष्कर्ष येही निकलता है कि इस फिल्म के विभिन्न भागों को देखा जाये तो यह एक मास्टर पीस है परन्तु अगर इन टुकड़ों को जोड़ कर यदि इस फिल्म कि पहेली को सुलझाने कि चेष्टा कि जाये तो यह अपरिपक्वा घप्लेब्बाजी के अलावा कुछ नहीं |इस फिल्म को आप अवश्य एक बार देख सकते हैं और आपके एक बार के पैसे वसूल हो भी जायेंगे बहरहाल तार्किक अथवा मानसिक अनुस्मरण के लिए आपके पास कुछ नहीं रहेगा | अनुराग कश्यप और अन्य सभी को हज़ार निन्दाओं के बावजूद भी इस फिल्म को अपने हृदय से लगा के रखना चाहिए क्यूंकि संतान का तिरस्कार चाहें पूरा जग करे वो सदेव माता-पिता कि आँखों का तारा ही रहता है | इस फिल्म से जुड़े सभी को शुभकामनायें देते हुए मैं यह उम्मीद करती हूँ कि अगला भाग दर्शकों कि उस नस को छु लेगा जिसका प्रतिबिंब आखों में विभिन्न भावनाओं के रूप में स्पष्ट नज़र आता है |



--सौम्या शर्मा 

Monday, June 25, 2012

दर्पण छवि (समीक्षा – सन्दर्भ : लघु फिल्म श्वेत द्वारा ‘कंचन घोष’)





नियति को हमेशा किसी व्यक्ति को उसके जीवन की छवि अपने दर्पण में दिखाने का मार्ग मालूम रहता है इसलिए शायद सिनेमा से ज्यादा साफ़ और सटीक कोई माध्यम नहीं जिसमें आप अपने अप्रत्यक्ष विचारों की वास्तविक प्रतिक्रिया देख सकते हैं | कुछ इसी प्रकार से मेरे भीतर के स्व के प्रतिबिंब को मुझे निर्देशक कंचन घोष की लघु फिल्म ‘श्वेत’ के द्वारा देखने का अवसर मिला है | फिल्म में मूर्त एवं अमूर्त पीड़ाओं के अंत की समानता को दर्शाया गया है, जो कि मेरे अनुसार एक दूसरे कि दर्पण छवि होती हैं | फिल्म से पूर्व दिखाए जाने वाली वैधानिक चेतावनी वास्तविक जीवन की घटनाओं के साथ संयोगिक हो सकती है परन्तु इस फिल्म से जो अध्यात्मिक सम्बन्ध पैदा होता है वो दर्शकों के समक्ष एक अतिसार के रूप में प्रकट किया गया है | कंचन घोष का सरल और सूक्ष्म निर्देशन इस फिल्म में उपस्थित सामाजिक सन्देश के ऊपर ना सिर्फ एक विशेष धारणा आत्मसात करता है परन्तु इसे देखने वाले के विचारों को एक निष्पक्ष व्याख्या करने की पूर्ण स्वतंत्रता देता है | एक अच्छी फिल्म वही होती है जो आपको किसी ज्ञान से प्रभावित ना करते हुए स्वयं को आपके विचारों के समक्ष स्वतंत्र छोड़ देती है | विभिन्न फिल्म समारोह में फिल्म की सफल प्रस्तुति अद्धुत निर्देशक कंचन घोष की विनम्रता को एक इंच से भी स्थानांतरित नहीं कर पाई है और इस फिल्म के बारे में पूछने पर उन्होंने कुछ इस प्रकार से मुझे उत्तर दिया, “मैं यह दावा नहीं करता की फिल्म में अधिक गौण पाठ्य है परन्तु मेरी सफलता इसी में है की ये स्क्रीन कहानी अपने सभी दर्शकों के संग एक सम्बन्ध प्रकट करते हुए एक अत्यंत गहरी विज्ञप्ति जारी कर सके” |




इस फिल्म को देखने के बाद मेरी प्रतिक्रिया कुछ इस प्रकार से थी कि हम हमेशा दूसरों के जीवन के माध्यम से हमारे भीतर और हमारे आसपास हो रही घटनाओं के विश्लेषण करते हैं |इस फिल्म कि शुरुआत में शायद दर्शकों को यह आभास हो सकता है कि यह किसानों और उनके क़र्ज़ कि वो ही पुरानी धारणा हमारे समक्ष प्रस्तुत कर रही है बहरहाल जैसे जैसे फिल्म आगे रोल होती है और आप उस निर्माता एवं निर्देशक कि आँखों से इस फिल्म कि घटनाओं का एहसास करते हैं तब आपको अपने जीवन के कुछ ऐसे पल याद आ जायेंगे जब आपके अंतर्मन में यह सवाल आया होगा कि “मैं कौन हूँ?मेरा अस्तित्व क्या है?” |एक अच्छे निर्देशक कि तरह कंचन घोष ने इस फिल्म कि मूल भावना को हर एक दृश्य के साथ पिरोया है| इसका शीर्षक ‘श्वेत’ एक दम उपयुक्त है क्यूंकि जीवन से पूर्ण और मृत्यु के पश्चात सब श्वेत है और इसके बीच के अंतराल में हमें जीवन कि अभिव्यक्ति के अज्ञात रूपों का एहसास होता है, जैसा कि फिल्म की टैग लाइन में भी कहा गया है “व्हेर लाइव्स मीट एंड कोलाईड”...

Thursday, June 21, 2012

मनु बनाम ईश्वर (चित्र: फिल्म स्टॉकर)




 

जीवन त्रिकोण केंद्र में विराजमान कौन?
ईश्वर या मनुष्य?
यदि ईश्वर - तो केवल स्वयं का सत्य
हमारे लिए माननीय है,
यदि मनुष्य - तो वह एकांत ही
अपने राग को हास्य रूप देता है
यह राग-आत्मा और गुम्बज का घर्षण,
और इसमें सदेव गुप्त मनुष्य -
जैसे नवजात और असहाय शिशु,
क्यूँकी महान का सिद्धांत नरम है,
और व्यर्थ बल का प्रतीक,
जनम के रूपक हैं नरम एवं मासूमियत,
तत पश्चात मृत्यु के आगमन पर -
मनुष्य है कठिन और मजबूत
जैसे मिट्टी का बर्तन,
कठिन का विध्वंसक कोमल है -
अर्थात वांछनीय,
जैसे वसंत में इच्छित वृक्ष्य
और पतझड़ में प्रथक,
कोमलता जीवन का अवतार है,
कठिन मृत्यु का सारथी है - सदेव पराजित
और कोमलता गुप्त है-
मनुष्य हृदय के अथाह कुंड में ।



Tuesday, June 19, 2012

तराही मिसरा ग़ज़ल


तेरा उन्स जो बहता था मेरे जिस्म में लहू की तरह
अब वो गुम्साज़ है माज़ी में आँखों की गर्द बनके


तेरा ख्याल जो बहल करता था रूह को शगुफ्ता की तरह
अब वो फिरता है परिंदों का आवारा रहनुमा बनके


तेरा हर लफ्ज़ सजता था मेरे आशियाने में मैखाने की तरह
अब वो नशा भी बंद है इन दुनयावी दीवारों में स्याह बनके


तेरा फरमान बहता था चौबारे की हवाओं में तक्दीस की तरह
अब वो सड़कों पर तिलमिलाता है सुर्ख पत्तों का नाजोमी बनके...

Sunday, June 10, 2012

गीत - रात कजरारी (चित्र : मीराबाई)




रात कजरारी मोरे नैनं में तू यूँ छुप जाना,
की फिर ना करे बेईमानी मोसे तोरा चंदा - (२)

तारों की डोली में जब मैं पिया घर जाऊँ
तू चाँदनी के पथ से मृदुंग बजाते आना,
फिर तेरी आभा से सजी मोरी बिछिया
खेले पिया संग सेज पर आँख मिचोली,
और होले से पनघट पे सखियों से कहना
मृग रसिया चंदा ने नाज़ुक कलइयां मरोड़ी

रात कजरारी मोरे नैनं में तू यूँ छुप जाना,
की फिर ना करे बेईमानी मोसे तोहरा चंदा - (२)

फिर ना करूँ मैं नटखट बरजोरी तोसे
की तेरी मीठी ओढनी में सोया मोरा चंदा,
श्याम रूप धारी तू भोर की किरणों संग
चुपके से पग पग मोहरे अंगना में आना,
और मेरे केसुओं में मोगरे की गंध से
सजा देना पिया संग मोरी बत्तियाँ,

रात कजरारी मोरे नैनं में तू यूँ छुप जाना,
की फिर ना करे बेईमानी मोसे तोरा चंदा - (२)

Friday, June 8, 2012

गम के तरन्नुम में ख़ुशी




(तसवीर : अमृता शेरगिल)


आ  ख़ुशी  तुझे  अपने  गम  के  तरन्नुम  में  छुपा  लूँ,

तू  जो  बढ़ा  ले  चुपके से एक  कदम  मेरे  गुलफाम  में
अपनी  ख्वाइशों  की  बस्ती  तेरी खुशबू से सजा  दूँ,

यूँ  तो  वक़्त  का  मोहताज  है  तेरा  हर अफसाना 
बस  यूँ  ही  तेरी  मोसिकी  में  चंद अल्फाज़  लिख डालूँ,

आ  ख़ुशी  तुझे  अपने  गम  के  तरन्नुम  में  छुपा  लूँ,

बादलों पर चलके आयेगी जब मिलने तू हर सहेर
तेरी बारिश में भीग के अपने आँसुओं में तुझे बसा लूँ,

तू अगर तमाशा बनके नाचे मेरी तमाम हसरतों पर
इन तमाशों की वफ़ा में हर किरदार मैं हंस के निभा लूँ,

आ  ख़ुशी  तुझे  अपने  गम  के  तरन्नुम  में  छुपा  लूँ...




Wednesday, June 6, 2012

एक ग़ज़ल - मेरी हसरतें









लोगों ने जो लगाई मेरी हसरतों की राह में आग,
खून का हर कतरा आँखों में तपिश बनके बस गया,


गुज़ारिश थी अंजुमन से सिर्फ चंद सांसों के सुकून की,
पर तामीर ओढ़े कमबख्त ज़माना मेरी रूह को ही डस गया,

कहते हैं लोग तारों की आर्ज़ू कर इतनी की धूल तो मिल जाये,
पर घर के अंधेरों से घबरा कर मेरा साया रात में कहीं फँस गया,

कहाँ है वो जन्नत जहाँ होता है दुआओं का जलसा देर सवेर,
यहाँ मेरी ही इबादतों का फन्दा मेरे अरमानों पर कस गया,

हज़रत की शबनम में मैंने भी खिलाया गुल होके बेनज़ीर,
पर शगुफ्ता में उसकी मेरे ही अश्कों का रस गया...






Tuesday, June 5, 2012

दैनिक जनवाणी (रविवाणी) में उदय प्रकाश जी पर प्रकाशित मेरी समीक्षा


दैनिक जनवाणी की रविवार पत्रिका (रविवाणी) में उदय प्रकाश जी पर मेरी एक समीक्षा प्रकाशित हुई है

शीर्षक - भीतर के अन्तर्द्वन्द्व से बाहरी समझौता
सन्दर्भ - उदय प्रकाश जी की कृति पॉल गोमरा का स्कूटर
दिनाक - 3rd June 2012


Sunday, June 3, 2012

एक बे(नाम) ग़ज़ल




   ज़माने के रिवाज़ों ने मारे मुझ काफ़िर को ताने               

कुछ ऐसे वक़्त में तप के बने मेरे अफसाने,


होठों की पपड़ी बनके रह गए मेरे सब अल्फाज़ 
अब सिर्फ आँखों से बहती है रूह होके गुम्साज़,


शौकिया गम में भी उड़ाते चले हम हंसी के बुलबुले 
हमारी ही बेबसी में आये लोग लेके अपने सिलसिले ,


लोगों जला दो मेरी मल्कियत के दिए अपने बाज़ार 
इस ज़िल्लत से फिर भी रोशन मेरी उमीदों की मज़हार,


कारवां-ए-ज़िन्दगी पे नाज़ करता अब हाथों का जाम
आईने से रूबरू होता अजनबी पूछे उस अक्स से मेरा नाम...