Tuesday, June 19, 2012

तराही मिसरा ग़ज़ल


तेरा उन्स जो बहता था मेरे जिस्म में लहू की तरह
अब वो गुम्साज़ है माज़ी में आँखों की गर्द बनके


तेरा ख्याल जो बहल करता था रूह को शगुफ्ता की तरह
अब वो फिरता है परिंदों का आवारा रहनुमा बनके


तेरा हर लफ्ज़ सजता था मेरे आशियाने में मैखाने की तरह
अब वो नशा भी बंद है इन दुनयावी दीवारों में स्याह बनके


तेरा फरमान बहता था चौबारे की हवाओं में तक्दीस की तरह
अब वो सड़कों पर तिलमिलाता है सुर्ख पत्तों का नाजोमी बनके...

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