Thursday, January 10, 2013

संघर्ष (सामिष, पशु प्रेमी और तुच्छता ) - ( चित्र : पाब्लो पिकासो )



मेरे साथ अकसर ऐसा होता है कि मेरे पाप और पुण्य मुझे अपने बीच की विभाजित रेखा पर खड़ा करके एक दुविधा में डाल देते हैं । ये दोनों ही विशेताएँ मेरी नज़दीकी हैं, जैसे मेरे दो हाथ, तो इनसे किसी भी प्रकार का छुटकारा पाना अस्पृश्य रूप से शायद असंभव हो । वैसे एक बात और भी है कि शरीर के पास अपनी असहमति के तर्क भरपूर होते हैं परन्तु आत्मा या मन हमेशा पाप और पुण्य की दुविधा में अपांग साबित हुए हैं । इस संकट का उदहारण एक जीव के प्रति दुसरे जीव की प्रतिक्रिया से स्पष्ट होता है । सरल शब्दों में बात कुछ यूँ है कि मैं माँसाहारी हूँ परन्तु किसी भी पशु पर अत्याचार होते देख मेरी आत्मा और मन तिलमिला जाते हैं । बहुत अजीब बात है की किसी चिकेन और मीट शॉप पर जाकर मुर्गे या बकरे को कटता देख आँखें भींच लेती हूँ और उसी को फिर आँखों में चमक और लार टपकाते हुए खाती हूँ । इसी प्रकार मूक जीव पर किसी बातूनी जीव का अत्याचार देख कर आँखें नाम हो जाती हैं, उसे बचाने को कदम बढ़ते हैं, फिर चाहें अपने निर्माण सम्बन्धी एकांत में किसी और जीव के माँस को दांत और जीभ दोनों तरस रहे हों । बहुत ही दोगुना मानक स्वाभाव है यह जहाँ राम और रावन बनके पाप और पुण्य दोनों ही आपकी आत्मा पर हावी रहते हैं । पर शायद इससे भी ज्यादा आशचर्य की बात यह है कि जीव शोषण के समय मेरे राम ही आत्मा और मन पर अधिकार जमाते है और मुर्गे या बकरे का मज़ा लेते हुए मेरे रावन सिर्फ उस पर हावी रहते हैं । ऐसा क्यूँ नहीं होता कि दोनों अपने स्थान का प्रातिदान कर लें, आखिर हैं तो दोनों मेरे ही मन कि उपज जिसे स्वत: मेरी इन्द्रियां एक जैसा ही सींचती हैं । इस बात को यहाँ लिख कर मेरे पाप और पुण्य कि दुविधा में कोई कमी नहीं आएगी परन्तु स्थिति अनुसार मेरे राम और रावन एक दुसरे पर प्रशन चिन्ह अवश्य दाग देंगे । फिलहाल कठोर सत्य यह ही है कि मैं पशु प्रेमी और माँसाहारी दोनों हूँ और मुझे अपने पर घृणा और गर्व दोनों हो रहे हैं...तुच्छ मनुष्य हूँ मैं, शायद ।