Wednesday, February 8, 2012

"कुछ चुभता हुआ सा..."




हाल ही में मैंने German निर्देशक Fassbinder की फिल्म "Ali fear eats the soul" देखी| डर, किसी जासूस या गुप्त राज़ की तरह मनुष्य के जीवन में प्रवेश कर उसके मन को नोचता रहता है, जीस प्रकार गीध मांस के टुकड़े को नोच-नोच कर खाते है|धीरे धीरे मानसिक, शारीरिक और भावात्मक क्षमताएँ कम करता हुआ वो किसी फाँस की तरह हर दिन चुभता सा रहता है| मुझे इस डर से बहुत भय लगता है, शायद उन चूहों से भी ज्यादा जो मेरे घर में खाने की वस्तुओं या पुराने furniture की लकड़ी को कुतरते रहते हैं| यह चूहे मेरी नींद, मेरे मन की शांति पे धावा नहीं बोलते, इसलिए इन्हें बाइज्ज़त बरी कर दिया है मैंने, पर यह डर, मुझे खोखला सा करता हुआ, मेरे नींद से सपने खरोंचता हुआ, बना दिया है मुझे जिसने पिंजर, इसे कैसे अपने से दूर करूँ?डर मुझ तक सिमित रहे तो शायद संभाल लूँ पर यह मेरी नंसों में से सरकता हुआ मेरे रिश्तों, मेरे काम, मेरे हाव-भाव में मिल गया है, अब इससे बचने का उपाय नही सूझ रहा मुझे| कभी असफलता, कभी आशाभंग बनके मेरे जीवन को मृत्यु की दिशा में ले जा रहा है| और मृत्यु का डर तो सबसे परम है, इससे इजाद पा लिया तो ज़िन्दगी ओस की बूंदों जैसी ताज़ी और सुन्दर हो जाये..शायद|


डर को निकालने के लिए उसकी जड़ तक पहुचना ज़रूरी है, कैसे और कहाँ से आता है यह डर?क्या समाज डर उत्पन करता है, पर हम सब से ही तो यह समाज बना है, परन्तु फिर भी हम डर को नहीं मार पाते|समाज में स्वीकृति पाने के बाद भी कहीं कुछ फाँस जैसा दिल में चुभता , यह था डर, वो ही डर जो समाज ने मन में पैदा किया| पर समाज नहीं तो डर नहीं?, काश ऐसा कहना आसान होता, परन्तु डर जीवन-मृत्यु की चक्र के साथ रोम-रोम में किसी बिन बुलाये मेहमान की तरह घर करे बैठ जाता है...तो डर का बीज, सिचाई और उपज इन्सान के मन की ही देन हुई, इसलिए आज कल महसूस होता है कुछ "चुभता हुआ सा..."|


"डर हैवान सा खराश करता हुआ 

जिंदा रखे मेरी रूह को ...|"