Friday, March 30, 2012

हे राजधानी !




हे राजधानी !

तेरी छावनी में,
                                               
तेरे अस्तित्व से बचके,

निकलते हैं जीव चरने को,

अकेलेपन के तिनके,

और छोड़ जाते,

सूखी आत्मा और भीगे हाथ|


हे राजधानी !

न कर गुरूर इतना,

रह जायेंगे मूल तेरी चौखट पे,

कुछ पंछी अटल,

अपने पंखों पे लिए,

सरकती दुआएँ...




(चित्र: धीरज चौधुरी)

Wednesday, March 28, 2012

अकेलापन (आत्म अवलोकन) - 36 Chowranghee Lane देखने के पश्चात्


कभी कभी ऐसा लगता है कि मैं पागल हूँ जो मानव झुंड में उड़ान भरने कि कल्पना करती हूँ| परंतु जितनी बार भी मैंने सांसारिक वास्तविकताओं से बचने कि कोशिश कि जीवन के अनोखे पन ने उसी पल मुझे किसी वैक्यूम क्लीनर कि तरह अपनी और खींच लिया| अफ़सोस यह है कि जीवन हमारी चाहत के अनुसार स्वयं को त्यागने नहीं देता| ऐसा अक्सर मुझे लगता है कि संसार की सभी बुराइयाँ इकत्रित होके कुछ जादू टोना सा कर रही हैं मुझ पे और इस जादू टोने के प्रभाव से मेरी रचनात्मक भावना स्वयं को निहत्था और बेबस महसूस करती हैं | ऐसा नहीं है कि अकेले लड़ना मुझे आता नहीं परंतु अकेलापन मुझे बर्दाश्त नहीं होता और प्रभु पे सब छोड़ देने से कोई लाभ होता तो बुद्धिजीवी ये नहीं कहते कि "इन्सान ही इन्सान के काम आता है" |

कई बार युवा अवस्था में खुद को मनोचिकित्सक एवं साधुओं-फकीरों से भी दिखवाया कि मैं अपने भीतर के संसार और बाहर के संसार में समझ और संतुलन क्यूँ नहीं बिठा पा रही| सब ने खूब दवाइयां, पत्थर और मालायें दीं मुझे पहनने को परंतु मुझे यह नहीं समझा सके कि मेरे जीवन के अर्थ का विश्लेषण करने का तरीका बिल्कुल अलग क्यूँ है| वो यह नहीं समझा पाए मुझे कि क्यूँ मुझे नीरसता और उदासीनता में सुकून मिलता है| शायद वो नहीं जानते थे कि अपने सपने का तकिया बनाके उसपे सोना और अगले दिन सूर्य कि पहली किरण के साथ उस सपने को पूरा करने कि आशा को लेकर घंटो सोचते रहना क्या होता है| अगर इच्छाएं घोड़े पे सवार होती तो इस मुखौटा पहने संसार कि हर बात का विश्वास हो जाता पर सत्य हमारी सोच से बहुत गूढ़ है और ऐसी कल्पना से साहस कि उम्मीद रखना व्यर्थ ही रहेगा| शायद रबिन्द्रनाथ टैगोर ठीक कहते हैं, "एकला चलो रे"...

Friday, March 23, 2012

जीवन संगिनी

दिवार की शुन्यता पे टंगी,
खुरचन सी टपकती,
उसकी हंसी,
मेरी आँखों की पुतलियों की चमक |


झूर्रियों वाले चित्र की अमूर्तता,
सीने पे स्थाई गुम्बज,
वो काल का अंतिम छल-कपट,
और प्रवेश द्वार पे खड़ी,
वो मेरी जीवन संगिनी |

Thursday, March 22, 2012

ओ मेरे बचपन!

ओ मेरे बचपन!
तुम्हारे जाने के बाद,
ओ मेरे बचपन!
वह खिड़की, वह बंधन,
पक्षियों और मेरा,
ठोस, ज्वलंत बंधन,
भाजित,टूटा,विभाजित...


ओ मेरे बचपन!
तुम्हारे जाने के बाद,
ओ मेरे बचपन!
मूक और शुष्क,

मिट्टी सी गुड़िया,
आँखों में किरकिरी,
और डूबता पानी,
और डूबती मैं...

Tuesday, March 20, 2012

राख से निकलता पेड़




मैं बन रही थी राख,
वास्तव में,
आग की लपटें,
मुझे घेरे हुए थीं|
मैं बुरी थी,
दुष्ट नहीं थी,
शायद लाचार,
सारी दुनिया जुट गयी,
मुझे शाप देने में|
फिर तुम मिले,
शब्द बनके आत्मा से,
और मेरी देह में,
कविता सी बहने लगी|
मैंने पूछा,
"मिलोगे अगले बसंत?",
तुम मुस्कुराए,
और मैं खिला हुआ पेड़ बन गयी|

Monday, March 19, 2012

नींद - मुझसे रूठ गयी है

कह दो बाबुल से,
मखमल के बिस्तर पर,
नींद करवट लेते हुए,
भौचक्की हो कर  ताकती,
कमरे के सफ़ेद उजाड़ रंगों को|


मेरी नींद सूने वृक्ष के
घोसलें में फँसी चिड़िया,
इंतज़ार में तड़पती
की कब दीवारें - बूँद बूँद,
रंगीन पपड़ियाँ गिरा दें,
और मैं सो जाऊँ,
सपनों की बसंत में ।

Sunday, March 18, 2012

रात का आवरण संगम




कोहरे में कंपकपाती रात,
एकांत में दस्तक देती,
स्वयं को खोजती आई,
मेरे दरवाज़े पर सिमटी हुई -

क्लांत भावनाओं से |

श्रृंगार से सुशोभित काली स्त्री,

अपने स्याहपन  के इकहरे आवरण में,
फिर सींचती मेरे शब्दों को,
चाँद पर बिखरी गोधूलि से
और खुरचती प्रत्यय पर फैले ज़हर को|


शायद अपने जैसी वंचित,
मुझे व्यर्थ समझती हुई आई,
ले जाने तारों की छावनी में,
जहाँ इश्वर तैरते हैं,
नींद और स्वप्न की नगरी के संगम पर|

Friday, March 16, 2012

मैं सिर्फ मैं हूँ (चित्र : साल्वाडोर डाली)





मैं सिर्फ 'मैं' हूँ,कोई और क्यूँ नहीं? 
कोशिश करके बन जाती हूँ,
लेकिन उससे क्या होगा?
मेरे दिल के ख़ामोश लम्हे - 
मेरे जीवन में 'मैं' के उद्देश्य का,
रद्दी भर भी एहसास कर पाएंगे?

मैं सिर्फ पहचान सकती हूँ -
स्वयं की सीमाओं को,
किसी और रूप में ढल भी जाऊँ,
परंतु कैसे भावनाएं समझेंगी - 
मेरे अस्तित्व में छुपी,
मान्यता देती 'मैं' की असुरक्षा को ?




मैं, लेती एक निर्णय - 'मैं' नहीं रहती,
फिर देना इस छद्दा रूप को
मेरे व्यक्तित्व के सत्य का परिचय,
अगर मैं हो जाये दफ़न - 
इस गलत पहचान के मलबे में,
फिर से क्या मैं की आत्मा - 
अपनी परिकल्पना खोज पायेगी?

Monday, March 12, 2012

प्रेम प्रेम प्रेम

खड़ी हूँ मैं,
चुप्पी को थामे,
नंगी आत्मा के साथ,
शब्दों की निविदा के बीच,
परखती अपने घाव,
जो चीखते,चिल्लाते,
प्रेम,प्रेम,प्रेम...

पर्वत अकेले हैं

पर्वत अकेले हैं,
लेकिन बंधे,
एकजुट जंज़ीरों से,

हम इंसानों की तरह -
इस भीड़ में एकत्र,
और हर चेहरे पर झलकता -
अकेलापन |

Friday, March 9, 2012

नीचे खड़ी एक स्त्री

एक दिन भोर होते ही अपने कमरे की खिड़की से बाहर झांक के देखा तो नीचे खड़ी एक स्त्री की आकृति नज़र आई| वो कुछ हाथों के इशारे करती जा रही थी, धूप के कारण वो सब मुझे अलग-अलग आकृतियाँ नज़र आईं| फिर कुछ समय बाद जब रात के सपनों की किरकिरी पानी की छपकियों से साफ़ कर दोबारा उस स्त्री को देखना चाहा, तो हैरानी की बात यह नज़र आई की वो स्त्री मैं ही थी| हुआ यह था की मेरी आत्मा नीचे खड़ी हुई मेरे शरीर को आवाज़ लगा रही थी कि दोस्त नीचे आ जाओ, पैर ज़मीन पे रहेंगे तब ही भ्रम को सत्य बनाने की हिम्मत आएगी|फिर मैं उल्हास और उत्सुकता से भरी तुरंत नीचे जा पहुँची और देखा की उस जगह पर मेरी आत्मा नहीं, एक गाड़ी खड़ी थी और उसके बोनट पे नज़र आई मेरी छवि |


Saturday, March 3, 2012

मैं हूँ तुम्हारी आत्मा




मैं एक आत्मा, एक नन्हा सितारा,
तुम्हारी भौंहों के बीच अपने सिंहासन पर बैठी हूँ |
वहाँ से मैं अपने गंतव्य को स्पष्ट देखती हूँ,
सुनहरे लाल प्रकाश से आगे, विचारों के पंख लगाये उड़ती मैं |


मैं आत्मा आनंद के महासागर से उर्जा की खोज करती,
सभी दिशाओं से आती अध्यात्मिक धाराओं के,
सर्वोच्च स्तर पे खड़ी अपने भीतर को,
आनंद के प्रकाश से स्पंज की तरह भिगो रही हूँ |


मैं तुम्हारी इन्द्रियों के संग बह निकली हूँ भावों में,
सब में एक कामुक संबंध बनाते हुए|
तुम्हारे जीवन का असली उद्देश्य समझती,
अपनी रूचि का प्रतीक देती, मैं हूँ तुम्हारी आत्मा |