Monday, September 24, 2012

व्यक्तिवाचक संज्ञा का अपराध बोध (चित्र : सतीश गुजराल)





अपनी सबसे प्रिय चीज़ को व्यक्तिवाचक संज्ञा की श्रेणी में रखना मेरी अंतरात्मा को सदेव के लिए ऋणी बना देता है | क्यूंकि व्यक्तिगत संज्ञा का चयन करना हमेशा मेरे मनोबल पर एक अंतराल चिन्ह लगा कर उस पर असंतुष्टि का कोई रहस्मय प्रयोग करता रहता है | इस दुविधा में फसने का कारण यह नहीं कि मेरा मन अस्थिरचित है या फिर शायद इस चयन के काल्पनिक परिणाम को लेकर मैं विमूढ़ हो जाती हूँ | बल्कि यह कि मुझ से किसी प्रिय चीज़ के चुनाव के पश्चात् पुनः उसके मूल रस कि सृष्टि की पुनरावृत्ति करना असंभव हो जाता है | मेरे स्वयं से तर्क सम्बन्ध रखता हुआ एक सत्य यह भी है की यदि कोई चीज़ सबसे प्रिय है तो उसका चुनाव करके हम ये सिद्ध कर देते हैं की वो वस्तु हमें निरपेक्ष सुख ना प्रदान करके मात्र सापेक्षिक इच्छाओं की पूर्ति का एक बिम्ब था | पक्षपात से कोई चीज़ प्रिय कैसे हो सकती है यद्दपि उसका तत्व कभी हमारी इन्द्रियों पर अपनी छवि को पूर्ण रूप से स्थायी नहीं कर पाया है | मनभावन के चुनाव के समय यदि उस प्रिय वास्तु की तुलना में अन्य व्यक्तिवाचक संज्ञाएँ अपने प्रसंग का महत्व हमारे मन में जागृत कर देती हैं तो कोरे कागज के सामान स्पष्ट है की वो वस्तु कभी भी हमारे लिए व्यक्तिगत थी ही नहीं | संक्षेप में, उस व्यक्तिवाचक संज्ञा को संबोधित करता प्रिय शब्द हमारे लिए सिर्फ हिंदी शब्दकोष में लिखा एक मूर्त शब्द है...



Saturday, September 8, 2012

प्रकृति का वर्चस्व (चित्र : फिल्म - 'टेस्ट ऑफ चेरी' - द्वारा 'अब्बास किरोस्तामी'



                                   हे प्रकृति फैला दो अपने सौन्दर्य का वर्चस्व,
और कर दो मेरे रक्तरंजित अस्तित्व को हरा,
यदि मैं भटक जाऊँ निष्कपट अपने विकार में,
तुम मुझे अपने शुन्यतम में विश्राम करने देना |


हे प्रकृति छिपा लो इस धर्मयुद्ध को अपने निवास में,
और उत्कीर्ण कर दो मेरे अवसाद में हिम नील वर्ण,
यदि रहूँ मैं अपने अपराध-बोध के फंसाव में ग्रस्त,
तुम पछुआ हवा से मेरे विध्वंस पर ग्रहण लगा देना ।