मैं बन रही थी राख, वास्तव में, आग की लपटें, मुझे घेरे हुए थीं| मैं बुरी थी, दुष्ट नहीं थी, शायद लाचार, सारी दुनिया जुट गयी, मुझे शाप देने में| फिर तुम मिले, शब्द बनके आत्मा से, और मेरी देह में, कविता सी बहने लगी| मैंने पूछा, "मिलोगे अगले बसंत?", तुम मुस्कुराए, और मैं खिला हुआ पेड़ बन गयी|