Friday, March 30, 2012

हे राजधानी !




हे राजधानी !

तेरी छावनी में,
                                               
तेरे अस्तित्व से बचके,

निकलते हैं जीव चरने को,

अकेलेपन के तिनके,

और छोड़ जाते,

सूखी आत्मा और भीगे हाथ|


हे राजधानी !

न कर गुरूर इतना,

रह जायेंगे मूल तेरी चौखट पे,

कुछ पंछी अटल,

अपने पंखों पे लिए,

सरकती दुआएँ...




(चित्र: धीरज चौधुरी)