ललाट की मोतियों से गेहूँ जो सींचा था
नमक मिट्टी का रोटी में जो फीका था,
आज जगा है पेट में तपता लोहा बनके
चूल्हे में पकती गरीबी के मुँह पे राख बनके,
अब ना धरती में कोई फासी फूल खिलेगा
ना आसमान में परिवार का पंजा हिलेगा,
मजदूर की भुजाओं पे टिका समाज हमारा है
किसान के औज़ार से निकला अनाज हमारा है,
अब कलाकार के रंगों में भी रक्त होगा
गूंगा अँधा बेहरा, सब का मन अभिव्यक्त होगा...