Wednesday, February 15, 2012

मैं




आग में भभकते पतझड़ के पत्तों की राख मैं,
बहा दो मुझे बनारस में बहती गंगा के तट पे, 
की बहती धाराएँ मुझे डाल दें उन वादियों में,
जहाँ कीचड़ में खिलता जंगली फूल  बन जाऊं,
जिसे कोई रमता जोगी तोड़कर झोली में डाल,
किसी मंदिर की चौखट पे अर्चना में चढ़ा दे,
फिर किसी पुजारी के हाथों से प्रसाद में मिलके
किसी गरीब की प्रार्थना का नतीजा बन जाऊं,
और जब वो मुझे अपनी चौखट का गर्व बना ले,
तो मैं फिर से मुझसे बिछड़ी हुई बसंत ऋतु में,
अपनी खुशबू फेलाके सुकून से बहती चलूँ |