Tuesday, July 24, 2012

विमुक्त फीनिक्स (चित्र:फिल्म 'साइलेंस' द्वारा इंगमर बर्गमैन)




रक्त में बहते अभेद्य अंधकार
को समझने की चेष्टा करते हुए,
रसातल से मेरी आत्मा को -
मुक्त किया प्रेम ने,
और तब जीवन मृत्यु की
कामुक आर्क की तरह
मुझे स्मरण हुआ -
अंधकार और मौन का
मेरे साथी - एकमात्र
प्रेम से वंचित दिनों में,
फिर इद्रियों के पंखों को
फैलाते हुए-
बनके फीनिक्स का रूपक
एकांत की सलाखों में
आनंद लेती आत्मा
प्रेम में उभरती - विमुक्त ।

Thursday, July 12, 2012

घना-जंगल (स्वप्न बनाम यथार्थ) - चित्र: साल्वाडोर डाली


मैं एक जंगल में फँसी हुई हूँ और अचानक से पेड़ की टहनियों ने मुझे जकड़ लिया है | बेबस और निहत्थी में बचने का प्रयास करते हुए नियंत्रण और सीमित रूप से हांफती जा ताहि हूँ | ये टहनियाँ गोल-गोल घूमते हुए मेरे गले को दबोच चुकी हैं, अब इनका इरादा मुझे मेरे हिस्से की साँसों से वंचित कर मेरे गुब्बारे की तरह फुले सर को सफोकेशन के गुम्बज में परिवर्तित करना है | मेरे सर के ब्लैक होल की आखरी जीवन रेखा के चिथड़े होने से पहले मेरी भीतर छुपी चेष्टा ने एक धीमी आह की आवाज़ निकाल दी, मैं उठ गई, परन्तु पलंग की दूसरी छोर पर और पहली सोच यह थी की पृथ्वी घूमी या मैं?पानी का घूँट लेते ही याद आया मैं तो अपने सपने में मृत्यु का भोज बन गयी थी | लंबी 'हूँ' की सी आवाज़ निकालते हुए मैंने अपने चेहरे पर से जैसे अर्ध मृत्यु की परत को हटाया मन में ख्याल आया की शायद यमराज के यात्रा कार्यक्रम में शायद मेरा समय नहीं था और वो स्वयं ही अपने भैंसे पर मुझे वापस छोड़ गए होंगे | इससे अधिक तर्क बिठाने की उम्र नहीं थी उस समय, किशोरावस्था की मार्मिक स्तिथि में पैरों में लथर-पथर लिपटी चादर को अपने माथे की टिप तक ढांप लिया, जिससे उस समय में एकमात्र जाने पर भी बाहर के यथार्थ का आभास रहे मुझे | कुछ समय यूँ ही चादर की धवलता में सुकून से गुज़रा ही था की अचानक उन टहनियों ने फिर से मेरी बाँहों को जकड़ लिया | साँप जैसी घिनोनी वो धीरे से मेरे गर्दन और स्तन के बीच चक्रव्यूह सा बना रही थीं | आँख झट से चादर से बाहर निकाल कर मैंने उन टहनियों को अपने नाखूनों से दबोचने की हुनकर भरी की तभी अचानक घर वालों का मुझे उठाने का हज़ार शंख नाद जैसा स्वर गूंज उठा | कंपकपाते हुए हाथ के नाख़ून मेरे संग उस स्वर की गूंज से जो जाग उठे थे उनमें अब टहनियों के टुकड़े थे, जिनमे लहू की बिंदु विषम रूप से नज़र आ रही थीं...

Wednesday, July 4, 2012

अककड़-बककड़








अककड़-बककड़, धूम-धड़क्का
धूम-धड़क्का, अककड़-बककड़
आसमान में बादल कड़का
कड़-कड़,कड़-कड़ बादल कड़का


बूंदों की टिप-टिप से
गर्मी का हुआ बम्बे बो,
घड़ी की सुईं हैं भागे अब
अस्सी नब्भे और पूरे सौ
टिक-टिक करती भागे सुईं
भागी सरपट चुहिया मुई


अककड़-बककड़, धूम-धड़क्का
धूम-धड़क्का, अककड़-बककड़
बककड़-अककड़, अककड़-बककड़


आसमान में बादल कड़का
कड़-कड़,कड़-कड़ बादल कड़का
कड़क-कड़क के बादल कड़का


ठंडी हवा का निर्मल रस
चाय कि चुस्की संग जागा
गीली मिटटी कि खुशबू से
आसमान का रंग है ताज़ा
और उमस का भपका
दुम दबा के सरपट भागा


आसमान में बादल कड़का
कड़-कड़,कड़-कड़ बादल कड़का
कड़क-कड़क के बादल कड़का


अककड़-बककड़, धूम-धड़क्का
धूम-धड़क्का, अककड़-बककड़
अककड़-बककड़, धूम-धड़क्का
धूम-धड़क्का, अककड़-बककड़


अककड़-बककड़, धूम-धड़क्का
धूम-धड़क्का, अककड़-बककड़
बककड़-अककड़, अककड़-बककड़

















Monday, July 2, 2012

बावरिया



पग पग धरती पे साँवरिया
बनके माट्टी, बनके टहनी
खोजूँ तुझको मैं बावरिया

कुसुम उद्धारक मेघ ना बरसे
और अंखियों में प्रेम गगरिया

पलचिन पीहू तुझको पुकारूँ
परबत पे चलके मैं कांवडिया

गंगा की तट पे चंदा की धारा
और मेरे गेसू में खिले रात कजरिया

पग पग धरती पे साँवरिया
बनके माट्टी, बनके टहनी
खोजूँ तुझको मैं बावरिया