Thursday, July 12, 2012

घना-जंगल (स्वप्न बनाम यथार्थ) - चित्र: साल्वाडोर डाली


मैं एक जंगल में फँसी हुई हूँ और अचानक से पेड़ की टहनियों ने मुझे जकड़ लिया है | बेबस और निहत्थी में बचने का प्रयास करते हुए नियंत्रण और सीमित रूप से हांफती जा ताहि हूँ | ये टहनियाँ गोल-गोल घूमते हुए मेरे गले को दबोच चुकी हैं, अब इनका इरादा मुझे मेरे हिस्से की साँसों से वंचित कर मेरे गुब्बारे की तरह फुले सर को सफोकेशन के गुम्बज में परिवर्तित करना है | मेरे सर के ब्लैक होल की आखरी जीवन रेखा के चिथड़े होने से पहले मेरी भीतर छुपी चेष्टा ने एक धीमी आह की आवाज़ निकाल दी, मैं उठ गई, परन्तु पलंग की दूसरी छोर पर और पहली सोच यह थी की पृथ्वी घूमी या मैं?पानी का घूँट लेते ही याद आया मैं तो अपने सपने में मृत्यु का भोज बन गयी थी | लंबी 'हूँ' की सी आवाज़ निकालते हुए मैंने अपने चेहरे पर से जैसे अर्ध मृत्यु की परत को हटाया मन में ख्याल आया की शायद यमराज के यात्रा कार्यक्रम में शायद मेरा समय नहीं था और वो स्वयं ही अपने भैंसे पर मुझे वापस छोड़ गए होंगे | इससे अधिक तर्क बिठाने की उम्र नहीं थी उस समय, किशोरावस्था की मार्मिक स्तिथि में पैरों में लथर-पथर लिपटी चादर को अपने माथे की टिप तक ढांप लिया, जिससे उस समय में एकमात्र जाने पर भी बाहर के यथार्थ का आभास रहे मुझे | कुछ समय यूँ ही चादर की धवलता में सुकून से गुज़रा ही था की अचानक उन टहनियों ने फिर से मेरी बाँहों को जकड़ लिया | साँप जैसी घिनोनी वो धीरे से मेरे गर्दन और स्तन के बीच चक्रव्यूह सा बना रही थीं | आँख झट से चादर से बाहर निकाल कर मैंने उन टहनियों को अपने नाखूनों से दबोचने की हुनकर भरी की तभी अचानक घर वालों का मुझे उठाने का हज़ार शंख नाद जैसा स्वर गूंज उठा | कंपकपाते हुए हाथ के नाख़ून मेरे संग उस स्वर की गूंज से जो जाग उठे थे उनमें अब टहनियों के टुकड़े थे, जिनमे लहू की बिंदु विषम रूप से नज़र आ रही थीं...

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