Tuesday, December 10, 2013

जीवन एक अभिव्यक्ति







नन्हे शिशु के पदचापों सी मृदु ओस पर,
कमला से तितली बनती रंगीन दुनिया में,
उस हरीतिमा के आँचल में शून्य स्थिर,
यथार्थ क्षण की स्व कल्पना से विरक्ति,
प्रफुल्लित कलिनी – जीवन एक अभिव्यक्ति 


स्वावलम्बी पंछियों की अकल्पित राग ऐक्य में,
श्याम-श्वेत मेघ धारा से सुशोभित पृथ्वी पर 
उस निर्मिति की नाभि से उभरती हुई ज्योत संग,
निर्जल वन में यक्ष गान करती मनु प्रीति,
पञ्च-तत्व धारिणी जीवन एक अभिव्यक्ति







Friday, August 30, 2013

दोगुना मानक (तसवीर - कुमार अव्यय)






मानवता पे रेंगता काला साँप है
जो उठता हर सवेरे मोटर के मुख से 
हुँकारते हुए नैतिक जुगाली पर 
लेके अपने पूंजीवादी नथुनों में गंध,
फिर डमरू पे नाचते दोगुले धर्म दूत
बुद्ध को खट्टास का कूलैंट बनाते हुए
दांत में भींचते अपनी चिथड़ी आज़ादी 
और निपुण नग्नता से मुक्त कला को
अभिव्यक्ति का पित्त मान सड़कों पे थूक देते |



उगते सूरज में टहाके लगाती तोंद 
संध्या की लाली में चूल्हे पे सूख,
बनकर रिवाज़ों में मग्न हज़ार के नोट
सुधार पर मुट्ठी में धातु का चाँद बन जाती,
फिर चित्रशालाओं में ढूंढते मैना की कूक
प्रचार के बीज वो वृक्ष की आड़ में उगा देते,
और मेरे मोहल्ले के गटर पे नाक सिकोड़ कर ,
वह बुद्धिजीवी वादियों में जा अपने फेफड़े फुलाते |








Sunday, July 7, 2013

दोहे




1. सुख मैं भोगूँ, दुःख तू भोगे,फिर 'ईश' कहाँ से होए,

    माटी, मृग, मनु लागे चेतन, वन में चित जो खोये...


2. मल परिमल करिये सुधि जन,ऐसो प्रीत सजाए,
    ना राजा भजे ना रंक भजे कागा, जाने ना दोस पराए...


3. ना तेरा रहीम ना मेरा राम हो, पोथी पढ़-पढ़ जग बदनाम हो,
    प्रीत पराई से मन कैसो लगाऊँ, जब जन ही जन का हराम हो...


4. भूख ना देखे बासी भात, नींद ना देखे टूटी खाट
    मन का मैला निर्मल भया, भूल के प्रेम में जात-पात…


5. लाली खोजन ईश की मैं तो पग-पग जाऊँ,
    मिलो ना लाली प्रीत की, जग सुना ही पाऊँ,
    प्रेम की वाणी बोलके मन जो होये सुखिया,
    रघुवीरा तोहे छोड़ के, जीव-रीत अपनाऊँ...


6. ढाई आखर प्रेम जो पढिया मन का मालिक होवे,
     कहत पराया पेड़ जो काटे सब जग छाओं खोवे...


7. लाल लाली लहू से निर्धन मिले ना भात,
    भूखा बैरी सोत रहा जो नंगा नंदिये बात...


8. कागा जैसो मन हुआ तो आये घनेरी रात,
    रिपु अनमोल बोलिके कबहूँ ना खाए मात...

Saturday, June 29, 2013

जीव - दोष (चित्र : राजकुमारी भरानी थिरूनल रानी पारवती बाई द्वारा राजा रवि वर्मा)






विष्कंभ के मोहभंग से मुग्ध 

पथभ्रष्ट मेरा आतुर जीव-दोष,

ढूंढ़ता कितने ही परिवर्तन प्रायः

जीवन गहन के वन्य-कोटर में ।


फिर अदंडित प्राणों की सरणी,

पश्चाताप के विशाल रसातल में 

एकीकृत करती अपने स्वयं को

विश्व संघर्ष की परिधीय पर ।


अतः बनके मनुष्यता का यथार्थ,

स्थानिकता से होता स्थान का विच्छेद 

तत्पश्चात बनके गुण पूरक-प्रेरक 

करते 'दोष' से 'जीव' का पुनर्जागरण ।



Thursday, June 27, 2013

गंगा का स्त्रोत एक लिंग नहीं (चित्र : द्वारा गोगी सरोज पाल)



तुम्हारी जटाओं में बहती गंगा बन
चेष्टा की थी मैंने जीवन कोपलों को
प्रेम की आड़ में अंकुरित करने की,
पर हे पुरुष तुम्हारी कुंठा से सजा था,
अपने ही लिंग बोध में लुप्त आवेग ।

तनुकृत करने लगी मेरे स्वयं को
तुम्हारी वो दुर्बल पुरुषार्थ त्रासदी
नियंत्रित अपने क्लांत प्रवाह में,
परंतु एक लिंग तेरी प्रोढ़ता की चोट,
नहीं लपेट पाई मेरे अस्तित्व को ।

मैं समर्थ रही अमूर्त कारावास से,
अपने मनोबल को सशक्त करने में,
और प्रतिशोध किया मेरे नारीत्व ने,
फिर अभित्रस्त करके तुम्हारा वीर 
बह चली गंगा संसार की प्रफुल्लता में,
तुम्हारे लिंग स्त्रोत से मुक्त होती हुई ।

Monday, June 24, 2013

नास्तिकता ( चित्र : द्वारा एफ.एन सूज़ा )








धार्मिक अवधारणा के स्वांग से 
उदासीन होता मेरा भिक्षुक मन,
लगाता निष्कपट प्रशन-बोधक चिन्ह
परम अस्तित्व के गुण में यथार्थ पर ।

फिर आस्तिक रसातल का स्मरण
काल्पनिक अवरोध की रेखा खींच देता,
जैसे किसी कुंठित रात्रि में बंदी मनुष्य
खोज करता अपनी जिजीविषा का ।

नास्तिकता से उत्पन कला सृजक
मुझे मुक्त कर देता दिव्य-दोष से,
और जीवन में अवचेतन ही परस्पर
बन जाता मानार्थ अज्ञेयवाद का ।

तत्पश्चात इस प्रकृति का वर्चस्व
अथाह हो जाता मेरी इन्द्रियों में,
और यत्र, तत्र, सर्वत्र एकत्रित हो जाती,
स्वयं संपन्न सिद्धि की अतिश्योक्ति ।

Saturday, June 8, 2013

अलगाव (चित्र : इन्सटालेशन द्वारा भारती खेर)





जब तक गुप्त है मेरी विकराल आत्म वेदना,     
सशक्त है वो अनगिनत तिरस्कृत दीवारें,
जिनके गुम्बज में दौड़ता संसार का संतोष,
और नीव में बसा मौन-संदेह बनके अनंत-राग

जब तक लुप्त है मेरा अनुचित सत्य रूपांतर,
सम्पूर्ण हैं वो अनंत कुंठाग्रस्त वादियाँ,
जिनकी प्रतिध्वनि में गूंजती मनुष्य अछूता,
और श्री में बसा अलगाव बनके आधुनिक-विषाद

Friday, May 24, 2013

जीवन - चित्र : द्वारा सोनू कुमार (ftii में cinematography, 3rd year के छात्र)





जीवन राख से बना एक बुलबुला 
और चिता में भस्म होती कुंठा,
जैसे अज्ञात मनुष्य के विचारों में
कल्पना ग्रस्त जीर्ण - शीर्ण यथार्थ ।

जीवन तुषार से बना एक महा कुंड
और बादलों में भाप बनती अभिव्यक्ति,
जैसे अप्रिय मनुष्य की सरलता में
चेतना ग्रस्त तामसिक विकार ।






Tuesday, April 30, 2013

जटाओं में विलीन कामा - चित्र ( ब्रीफ एंकाउंटर द्वारा डेविड लीन )





तुम्हारी चहलकदमी संग यूँ ही फिरते हुए,
जीवन के नीरस स्वांग को नापते समय,
पाये मैंने प्रेम के वायुमंडल के सभी रहस्य,
जो मेहकें अनंत काल तक मेरी जटाओं में ।

फिर जब संवेदना में शोक ग्रस्त हो सखियाँ,
तुम मेरी इन जटाओं में उँगलियाँ फेर कर,
उनसे कहना की भस्म न करें इन्हें चिता में,
क्यूँकी बहता है इनकी युक्तियों में प्रेम रस ।

और तीव्र बढ़तीं हुई यह काल सर्प योगिनी,
पञ्च तत्व में लुप्त रखे मेरी निर्दोष वासनायें,
कि जब पुन आगमन हो मेरा तुम्हारी मृदुता में,
प्रणय कि साक्षी रहे ये कालिनी अन्य पक्ष से ।

Wednesday, March 27, 2013

मृगतृष्णा




दुष्ट रूप ले मेरे मन,
लगा ठहाके संसार पर,
बनके देव- मर्त्य स्वरुप ।

भरके कंठ में चंड राग, 
कर स्वयं का दाह संस्कार,
बनके मृत्यु पद-प्रदर्शक |

Saturday, February 16, 2013

प्रेम के अविनाशी समूह ( चित्र : द्वारा अनुपम सूद )





आओ उग्र प्रेमी बनके एक दुसरे को निहारें,
कि हमारी गतिहीन आत्माएँ सूचित हो जाएँ,
संकोची जीवन के निधन की बाहें पकड़ने में,
और हम बंदी बन जाएँ अपनी रूमानी समामेलन के।

आओ अबोध प्रेमी बनके एक दुसरे को पुकारें,
कि हमारा समय भी धूल में परास्त हो जाये,
स्वयं को प्रेम के वशीकरण में ढालने के लिए,
और हम बंदी बन जाएँ अपनी त्यक्त कल्पनाओं के।

आओ अटल प्रेमी बनके एक दुसरे को संवारें,
कि स्तंभ हो जाये आदर्श समाज का अवगुंठन,
अपनी दुष्टता को प्रेम मधु में आश्रय देने के लिए,
और हम बंदी बन जाएँ अपनी प्रच्छन्न अधीनता के।

Thursday, January 10, 2013

संघर्ष (सामिष, पशु प्रेमी और तुच्छता ) - ( चित्र : पाब्लो पिकासो )



मेरे साथ अकसर ऐसा होता है कि मेरे पाप और पुण्य मुझे अपने बीच की विभाजित रेखा पर खड़ा करके एक दुविधा में डाल देते हैं । ये दोनों ही विशेताएँ मेरी नज़दीकी हैं, जैसे मेरे दो हाथ, तो इनसे किसी भी प्रकार का छुटकारा पाना अस्पृश्य रूप से शायद असंभव हो । वैसे एक बात और भी है कि शरीर के पास अपनी असहमति के तर्क भरपूर होते हैं परन्तु आत्मा या मन हमेशा पाप और पुण्य की दुविधा में अपांग साबित हुए हैं । इस संकट का उदहारण एक जीव के प्रति दुसरे जीव की प्रतिक्रिया से स्पष्ट होता है । सरल शब्दों में बात कुछ यूँ है कि मैं माँसाहारी हूँ परन्तु किसी भी पशु पर अत्याचार होते देख मेरी आत्मा और मन तिलमिला जाते हैं । बहुत अजीब बात है की किसी चिकेन और मीट शॉप पर जाकर मुर्गे या बकरे को कटता देख आँखें भींच लेती हूँ और उसी को फिर आँखों में चमक और लार टपकाते हुए खाती हूँ । इसी प्रकार मूक जीव पर किसी बातूनी जीव का अत्याचार देख कर आँखें नाम हो जाती हैं, उसे बचाने को कदम बढ़ते हैं, फिर चाहें अपने निर्माण सम्बन्धी एकांत में किसी और जीव के माँस को दांत और जीभ दोनों तरस रहे हों । बहुत ही दोगुना मानक स्वाभाव है यह जहाँ राम और रावन बनके पाप और पुण्य दोनों ही आपकी आत्मा पर हावी रहते हैं । पर शायद इससे भी ज्यादा आशचर्य की बात यह है कि जीव शोषण के समय मेरे राम ही आत्मा और मन पर अधिकार जमाते है और मुर्गे या बकरे का मज़ा लेते हुए मेरे रावन सिर्फ उस पर हावी रहते हैं । ऐसा क्यूँ नहीं होता कि दोनों अपने स्थान का प्रातिदान कर लें, आखिर हैं तो दोनों मेरे ही मन कि उपज जिसे स्वत: मेरी इन्द्रियां एक जैसा ही सींचती हैं । इस बात को यहाँ लिख कर मेरे पाप और पुण्य कि दुविधा में कोई कमी नहीं आएगी परन्तु स्थिति अनुसार मेरे राम और रावन एक दुसरे पर प्रशन चिन्ह अवश्य दाग देंगे । फिलहाल कठोर सत्य यह ही है कि मैं पशु प्रेमी और माँसाहारी दोनों हूँ और मुझे अपने पर घृणा और गर्व दोनों हो रहे हैं...तुच्छ मनुष्य हूँ मैं, शायद ।