Friday, August 30, 2013

दोगुना मानक (तसवीर - कुमार अव्यय)






मानवता पे रेंगता काला साँप है
जो उठता हर सवेरे मोटर के मुख से 
हुँकारते हुए नैतिक जुगाली पर 
लेके अपने पूंजीवादी नथुनों में गंध,
फिर डमरू पे नाचते दोगुले धर्म दूत
बुद्ध को खट्टास का कूलैंट बनाते हुए
दांत में भींचते अपनी चिथड़ी आज़ादी 
और निपुण नग्नता से मुक्त कला को
अभिव्यक्ति का पित्त मान सड़कों पे थूक देते |



उगते सूरज में टहाके लगाती तोंद 
संध्या की लाली में चूल्हे पे सूख,
बनकर रिवाज़ों में मग्न हज़ार के नोट
सुधार पर मुट्ठी में धातु का चाँद बन जाती,
फिर चित्रशालाओं में ढूंढते मैना की कूक
प्रचार के बीज वो वृक्ष की आड़ में उगा देते,
और मेरे मोहल्ले के गटर पे नाक सिकोड़ कर ,
वह बुद्धिजीवी वादियों में जा अपने फेफड़े फुलाते |








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