Dichterin(दिश्तेरिन)
Monday, March 12, 2012
प्रेम प्रेम प्रेम
खड़ी हूँ मैं,
चुप्पी को थामे,
नंगी आत्मा के साथ,
शब्दों की निविदा के बीच,
परखती अपने घाव,
जो चीखते,चिल्लाते,
प्रेम,प्रेम,प्रेम...
पर्वत अकेले हैं
पर्वत अकेले हैं,
लेकिन बंधे,
एकजुट जंज़ीरों से,
हम इंसानों की तरह -
इस भीड़ में एकत्र,
और हर चेहरे पर झलकता -
अकेलापन |
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