Wednesday, March 28, 2012

अकेलापन (आत्म अवलोकन) - 36 Chowranghee Lane देखने के पश्चात्


कभी कभी ऐसा लगता है कि मैं पागल हूँ जो मानव झुंड में उड़ान भरने कि कल्पना करती हूँ| परंतु जितनी बार भी मैंने सांसारिक वास्तविकताओं से बचने कि कोशिश कि जीवन के अनोखे पन ने उसी पल मुझे किसी वैक्यूम क्लीनर कि तरह अपनी और खींच लिया| अफ़सोस यह है कि जीवन हमारी चाहत के अनुसार स्वयं को त्यागने नहीं देता| ऐसा अक्सर मुझे लगता है कि संसार की सभी बुराइयाँ इकत्रित होके कुछ जादू टोना सा कर रही हैं मुझ पे और इस जादू टोने के प्रभाव से मेरी रचनात्मक भावना स्वयं को निहत्था और बेबस महसूस करती हैं | ऐसा नहीं है कि अकेले लड़ना मुझे आता नहीं परंतु अकेलापन मुझे बर्दाश्त नहीं होता और प्रभु पे सब छोड़ देने से कोई लाभ होता तो बुद्धिजीवी ये नहीं कहते कि "इन्सान ही इन्सान के काम आता है" |

कई बार युवा अवस्था में खुद को मनोचिकित्सक एवं साधुओं-फकीरों से भी दिखवाया कि मैं अपने भीतर के संसार और बाहर के संसार में समझ और संतुलन क्यूँ नहीं बिठा पा रही| सब ने खूब दवाइयां, पत्थर और मालायें दीं मुझे पहनने को परंतु मुझे यह नहीं समझा सके कि मेरे जीवन के अर्थ का विश्लेषण करने का तरीका बिल्कुल अलग क्यूँ है| वो यह नहीं समझा पाए मुझे कि क्यूँ मुझे नीरसता और उदासीनता में सुकून मिलता है| शायद वो नहीं जानते थे कि अपने सपने का तकिया बनाके उसपे सोना और अगले दिन सूर्य कि पहली किरण के साथ उस सपने को पूरा करने कि आशा को लेकर घंटो सोचते रहना क्या होता है| अगर इच्छाएं घोड़े पे सवार होती तो इस मुखौटा पहने संसार कि हर बात का विश्वास हो जाता पर सत्य हमारी सोच से बहुत गूढ़ है और ऐसी कल्पना से साहस कि उम्मीद रखना व्यर्थ ही रहेगा| शायद रबिन्द्रनाथ टैगोर ठीक कहते हैं, "एकला चलो रे"...