Wednesday, June 27, 2012

महाचित्र (सन्दर्भ - गैंग्स ऑफ वासेपुर)






जब से मैंने ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर" देखी है मेरी चर्चा प्रवत्ति इस फिल्म की श्रेणी की गुत्थी सुलझाने में अस्थिरचित्त महसूस कर रही है, मैं इसका सारांश अपने जानने वालों को एक महाकाव्य के रूप में दूँ या फिर इस पर एक मसाला चलचित्र का ठप्पा लगा दूँ | हालाँकि जब भी कोई फिल्म बनती है उसका मुख्या उद्देश्य जनता जनार्दन का मनोरंजन करना ही होता है इसलिए मैं इस फिल्म कि श्रेणी के लिए एक नए सुविधाजनक शब्द का निर्माण कर रही हूँ ‘महाचित्र’ | फिल्म के निर्देशक बहुबली अनुराग कश्यप जी क्षेत्रवाद के माध्यम से अपना मनचाहा दिखाके सिनेमा कि नयी तरंग के मास्टर अवश्य बन गए होंगे परन्तु उस कहर का क्या जो इस ‘महाचित्र’ के द्वारा दर्शकों के विचारों कि व्याख्या में आत्मसात हो गया है | थिएटर से बाहर निकलते समय सबसे सामान्य स्टेटमेंट जो लोगों को कहते सुना वो यह था, ‘फिल्म ने कन्फ्यूज कर दिया’ | मनोरंजन का भी हमेशा कोई न कोई वैध तर्क होता है नहीं तो मनोरंजन फूहड़ और दर्शक मुर्दा कौम हो जाती है और अपनी सबसे बड़ी समीक्षक को ऐसी उलझन में छोड़ देना सिनेमा का साढ़े सत्यानाश कर देना है |

जैसा कि कहते हैं कि हर बात के विभिन्न कोण होते हैं वैसे ही इस ‘महाचित्र’ का अपना ‘गुड, बैड एंड अगली’ रूप है जिस पर इस फिल्म से जुड़े हर सदस्य को गर्व होना चाहिए फिर चाहें आलोचना के दिग्गज इसका विभाजन करके इसकी धज्जियाँ ही क्यूँ ना उड़ा दें | अगर सिर्फ कहानी और पटकथा पर ध्यान दें, जिसका श्रेय सचिन लाडिया, अखिलेश, ज़ीशान कादरी को जाता है, तो यह अवश्य प्रशंसा के योग्य है जिसमें कोयले कि खान में पनपती रुखाई से इजाद होती कहानी किसी के बदले कि गाथा बन जाती है जो समय के साथ उन खानों जैसी सख्त हो गयी है और सत्य ही तो है कि प्रतिशोध कि जड़ें हमेशा प्रकृति कि गोद में कहीं छिपी रहती हैं और समय के साथ जैसे प्रकृति परिवर्तन लेती है प्रतिशोध भी हमारे जीवन में विभिन्न रूपों में स्थायी हो जाता है | इन्ही कोयेलों कि खानों में निर्देशक अनुराग कश्यप सिनेमा के सौंदर्यशास्त्र का हीरा खोजने गए थे परन्तु अत्यधिक कामुकता, अश्लील संवादों, रक्तपात ने इस 

फिल्म में बदले के सार को एक मज़ाक का रूप दे दिया | जिस क्षेत्र कि ये फिल्म है वहाँ ऐसी क्रिया और प्रतिक्रिया बहुत साधारण बात है परन्तु यह निर्देशक का काम है देखना कि कौन सी बात या कहानी किस तरह से और किस मात्रा में लोगों के समक्ष परोसी जाये क्यूंकि आप शायद नहीं चाहते हैं कि आपके दर्शक यानि प्रशंसक खंडित हो जाएँ | फिल्म में यदि पियूष मिश्रा जी का व्यवधान कथन नहीं होता तो शायद दर्शक थिएटर से बहार निकल कर रिक्त अवस्था में होते और विवरण का उपयोग पटकथा और निर्देशन में बहुत समझदारी से किया गया है, इसलिए यह एक और कारण 
है इसे ‘महाचित्र’ का नाम देने के पीछे |

कलाकारों में सब ने लोहा गर्म देख कर अपनी अदाकारी का हतोड़ा मारा है चाहें हो मनोज बाजपाई, पियूष मिश्रा, जैसे मंझे हुए कलाकार हों या फिर समीक्षाओं में कम चर्चित नवाज़ुद्दीन’ सिद्दीकी, जयदीप अहलावत | मनोज बाजपाई का नाम अब कला के दिग्गजों में रख देना चाहिए क्यूंकि अब वो वास्तव में किसी बहुबली या जीनियस से कम नहीं| निर्देशक तिग्मांशु धुलिया के अभिनय ने उनकी प्रतिभाशैली में चार चंद लगा दिए हैं और यह बात कोरे कागज जितनी साफ़ है कि वो एक अच्छे निर्देशक के साथ-साथ एक अच्छे कलाकार भी हैं| फिल्म कि अभिनेत्रियों ने भी अपनी कला का परचम पूरी जोर से लहराया है क्यूंकि अगर नगमा खातून यानि रिचा चड्डा नहीं होंतीं तो सरदार खान शायद प्रतिशोध में गुप्त अपनी निष्ठुरता का दम शायद दुश्मन को नहीं दिखा पाते | सभी कलाकारों के 

अभिनय पर ज़ोरदार तालियाँ बजाते हुए एक बात मैं ज़रूर कहूँगी कि फिल्म के मुख्य पात्र शाहिद खान (जयदीप अहलावत) हैं जिन्होंने इस बदले कि भावना कि नीव रखकर इस फिल्म का आरम्भ किया और इसका विस्फोटक अंत फैज़ल खान (नोवाज़) कि चुप्पी में पनप रहा है जो दूसरे भाग के मुख्य पात्र हैं क्यूंकि कोयले कि खानों में कोयला और उससे निकलता हीरा ही असली मूल्य रखता है | दर्शक अवश्य अभिनेता कि पूर्वकल्पित छवि से बहार निकल गए होंगे कि अच्छा अभिनेता होना मतलब यह नहीं आपका रंग गोरा हो, आप गीत गायें, आप डोलें उठायें तो आपकी कमीज़ फट जाये इतियादी | बस एक ही कमी खली कि किसी कि भी अदाकारी आम जनता कि भावना को प्रज्वलित नहीं कर पाई और थिएटर में मुझे वाह वाही कि जगह निंदा भरे ठहाकों कि गूँज अधिक सुनाई दे रही थी | फिल्म के संगीत ने एक नयी तरंग को जीवित किया है पर यह तरंग जीवन भर का संगीत नहीं बन सकती | चाहें गाना ‘इक बगल में चाँद होगा’ हो या ‘वोमनिया’ ये शीघ्र ही अपने जीवन काल के ब्लैक होल में पहुँच जायेंगे | जिया रे बिहार के लाला गीत को फिल्म के अंत में दिखाने का वैध कारण मुझे नहीं ज्ञात होता क्यूंकि भला किसी दमदार 
व्यक्ति की इतनी उदासीन मृत्यु दिखाते वक़्त आप ऐसा मनमौजी गाना क्यूँ सुनाना चाहोगे ? गानों के बोल एकदम ज़बरदस्त हैं और गीतकारों कि गेय भावना पूरी तरह सराहनीय है परन्तु आज से 5 साल बाद लोगों को धुन गुनगुनाने के समय सिर्फ संगीत याद रहेगा बोल नहीं और इन गीतों में संगीत के श्रोता बहुत सिमित हैं और अच्छा गाना तो वो होता है जिस पर हर कोई गुनगुनाये या सबके पैर थिरकें |

निष्कर्ष येही निकलता है कि इस फिल्म के विभिन्न भागों को देखा जाये तो यह एक मास्टर पीस है परन्तु अगर इन टुकड़ों को जोड़ कर यदि इस फिल्म कि पहेली को सुलझाने कि चेष्टा कि जाये तो यह अपरिपक्वा घप्लेब्बाजी के अलावा कुछ नहीं |इस फिल्म को आप अवश्य एक बार देख सकते हैं और आपके एक बार के पैसे वसूल हो भी जायेंगे बहरहाल तार्किक अथवा मानसिक अनुस्मरण के लिए आपके पास कुछ नहीं रहेगा | अनुराग कश्यप और अन्य सभी को हज़ार निन्दाओं के बावजूद भी इस फिल्म को अपने हृदय से लगा के रखना चाहिए क्यूंकि संतान का तिरस्कार चाहें पूरा जग करे वो सदेव माता-पिता कि आँखों का तारा ही रहता है | इस फिल्म से जुड़े सभी को शुभकामनायें देते हुए मैं यह उम्मीद करती हूँ कि अगला भाग दर्शकों कि उस नस को छु लेगा जिसका प्रतिबिंब आखों में विभिन्न भावनाओं के रूप में स्पष्ट नज़र आता है |



--सौम्या शर्मा 

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