Wednesday, June 6, 2012

एक ग़ज़ल - मेरी हसरतें









लोगों ने जो लगाई मेरी हसरतों की राह में आग,
खून का हर कतरा आँखों में तपिश बनके बस गया,


गुज़ारिश थी अंजुमन से सिर्फ चंद सांसों के सुकून की,
पर तामीर ओढ़े कमबख्त ज़माना मेरी रूह को ही डस गया,

कहते हैं लोग तारों की आर्ज़ू कर इतनी की धूल तो मिल जाये,
पर घर के अंधेरों से घबरा कर मेरा साया रात में कहीं फँस गया,

कहाँ है वो जन्नत जहाँ होता है दुआओं का जलसा देर सवेर,
यहाँ मेरी ही इबादतों का फन्दा मेरे अरमानों पर कस गया,

हज़रत की शबनम में मैंने भी खिलाया गुल होके बेनज़ीर,
पर शगुफ्ता में उसकी मेरे ही अश्कों का रस गया...






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