Monday, November 28, 2011

प्यासा सावन




पलकों पे गिरती बारिश की बूँदें मुझसे कहतीं,
मेघ की रिमझिम से पहले क्यूँ भीगी है तू,
कुछ चंद मोतियों को अपनी हथेली पर लेकर,
उन बीते हुए लम्हों के आँचल में फंस जाती,
याद है उस बरस भी सावन के झूले पड़े थे,
गीली मिट्टी की ख़ुशबू से महकी थी हवा,
आज भी सावन के झरोखे मुझे घेरे हुए हैं,
पर आज काँटों से भरा है इनका आँचल,
भीग गयी कायनात आज फिर एक बार,
न जाने मेरी रूह क्यूँ रह गयी प्यासी?



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