Friday, March 30, 2012
Wednesday, March 28, 2012
अकेलापन (आत्म अवलोकन) - 36 Chowranghee Lane देखने के पश्चात्
कई बार युवा अवस्था में खुद को मनोचिकित्सक एवं साधुओं-फकीरों से भी दिखवाया कि मैं अपने भीतर के संसार और बाहर के संसार में समझ और संतुलन क्यूँ नहीं बिठा पा रही| सब ने खूब दवाइयां, पत्थर और मालायें दीं मुझे पहनने को परंतु मुझे यह नहीं समझा सके कि मेरे जीवन के अर्थ का विश्लेषण करने का तरीका बिल्कुल अलग क्यूँ है| वो यह नहीं समझा पाए मुझे कि क्यूँ मुझे नीरसता और उदासीनता में सुकून मिलता है| शायद वो नहीं जानते थे कि अपने सपने का तकिया बनाके उसपे सोना और अगले दिन सूर्य कि पहली किरण के साथ उस सपने को पूरा करने कि आशा को लेकर घंटो सोचते रहना क्या होता है| अगर इच्छाएं घोड़े पे सवार होती तो इस मुखौटा पहने संसार कि हर बात का विश्वास हो जाता पर सत्य हमारी सोच से बहुत गूढ़ है और ऐसी कल्पना से साहस कि उम्मीद रखना व्यर्थ ही रहेगा| शायद रबिन्द्रनाथ टैगोर ठीक कहते हैं, "एकला चलो रे"...
Friday, March 23, 2012
Thursday, March 22, 2012
Tuesday, March 20, 2012
Monday, March 19, 2012
Sunday, March 18, 2012
रात का आवरण संगम

कोहरे में कंपकपाती रात,
एकांत में दस्तक देती,
स्वयं को खोजती आई,
मेरे दरवाज़े पर सिमटी हुई -
क्लांत भावनाओं से |
श्रृंगार से सुशोभित काली स्त्री,
एकांत में दस्तक देती,
स्वयं को खोजती आई,
मेरे दरवाज़े पर सिमटी हुई -
क्लांत भावनाओं से |
श्रृंगार से सुशोभित काली स्त्री,
अपने स्याहपन के इकहरे आवरण में,
फिर सींचती मेरे शब्दों को,
चाँद पर बिखरी गोधूलि से
और खुरचती प्रत्यय पर फैले ज़हर को|
शायद अपने जैसी वंचित,
मुझे व्यर्थ समझती हुई आई,
ले जाने तारों की छावनी में,
जहाँ इश्वर तैरते हैं,
नींद और स्वप्न की नगरी के संगम पर|
फिर सींचती मेरे शब्दों को,
चाँद पर बिखरी गोधूलि से
और खुरचती प्रत्यय पर फैले ज़हर को|
शायद अपने जैसी वंचित,
मुझे व्यर्थ समझती हुई आई,
ले जाने तारों की छावनी में,
जहाँ इश्वर तैरते हैं,
नींद और स्वप्न की नगरी के संगम पर|
Friday, March 16, 2012
मैं सिर्फ मैं हूँ (चित्र : साल्वाडोर डाली)
मैं सिर्फ 'मैं' हूँ,कोई और क्यूँ नहीं?
लेकिन उससे क्या होगा?
मेरे दिल के ख़ामोश लम्हे -
मेरे जीवन में 'मैं' के उद्देश्य का,
रद्दी भर भी एहसास कर पाएंगे?
मैं सिर्फ पहचान सकती हूँ -
स्वयं की सीमाओं को,
किसी और रूप में ढल भी जाऊँ,
परंतु कैसे भावनाएं समझेंगी -
मेरे अस्तित्व में छुपी,
मान्यता देती 'मैं' की असुरक्षा को ?
मैं, लेती एक निर्णय - 'मैं' नहीं रहती,
फिर देना इस छद्दा रूप को
मेरे व्यक्तित्व के सत्य का परिचय,
अगर मैं हो जाये दफ़न -
इस गलत पहचान के मलबे में,
फिर से क्या मैं की आत्मा -
अपनी परिकल्पना खोज पायेगी?
Monday, March 12, 2012
Friday, March 9, 2012
नीचे खड़ी एक स्त्री
एक दिन भोर होते ही अपने कमरे की खिड़की से बाहर झांक के देखा तो नीचे खड़ी एक स्त्री की आकृति नज़र आई| वो कुछ हाथों के इशारे करती जा रही थी, धूप के कारण वो सब मुझे अलग-अलग आकृतियाँ नज़र आईं| फिर कुछ समय बाद जब रात के सपनों की किरकिरी पानी की छपकियों से साफ़ कर दोबारा उस स्त्री को देखना चाहा, तो हैरानी की बात यह नज़र आई की वो स्त्री मैं ही थी| हुआ यह था की मेरी आत्मा नीचे खड़ी हुई मेरे शरीर को आवाज़ लगा रही थी कि दोस्त नीचे आ जाओ, पैर ज़मीन पे रहेंगे तब ही भ्रम को सत्य बनाने की हिम्मत आएगी|फिर मैं उल्हास और उत्सुकता से भरी तुरंत नीचे जा पहुँची और देखा की उस जगह पर मेरी आत्मा नहीं, एक गाड़ी खड़ी थी और उसके बोनट पे नज़र आई मेरी छवि |
Saturday, March 3, 2012
मैं हूँ तुम्हारी आत्मा
मैं एक आत्मा, एक नन्हा सितारा,
तुम्हारी भौंहों के बीच अपने सिंहासन पर बैठी हूँ |
वहाँ से मैं अपने गंतव्य को स्पष्ट देखती हूँ,
सुनहरे लाल प्रकाश से आगे, विचारों के पंख लगाये उड़ती मैं |
मैं आत्मा आनंद के महासागर से उर्जा की खोज करती,
सभी दिशाओं से आती अध्यात्मिक धाराओं के,
सर्वोच्च स्तर पे खड़ी अपने भीतर को,
आनंद के प्रकाश से स्पंज की तरह भिगो रही हूँ |
मैं तुम्हारी इन्द्रियों के संग बह निकली हूँ भावों में,
सब में एक कामुक संबंध बनाते हुए|
तुम्हारे जीवन का असली उद्देश्य समझती,
अपनी रूचि का प्रतीक देती, मैं हूँ तुम्हारी आत्मा |

Subscribe to:
Posts (Atom)