Monday, April 23, 2012

स्कूल बैग

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ



सूर्य के शिखर से पहले,

रोज़ नन्हे कदम टुक-टुक गुनगुनाते,

खिलखिलाते स्कूल बैग को देखने,

वो परियों की कहानी का पिटारा,

तरसती बुनियाद उसकी - लत्ता सी वो,

नाजायज़ सी उम्मीद मुट्ठी में बंद,

जायज़ मुस्कान के पीछे छुपी लौट जाती |



टिमटिमाती आँखें - कठबोली में,

"माँ सममित कपड़े मैं क्यूँ नहीं पहन पाती?"

पसंद को तुम्हारी ज़रूरत नहीं,

माँ विषय बदल देती - अट्टहास में,

पर शब्द तो सुइंयाँ चुभा देते,

स्तब्धता को हंसी में बसा लेते | 




3 comments:

Mandan Jha said...

Awesome Poetry :)

Unknown said...

kavita padhkar yaad aata hai gujra zamana bachpan ka...

Saumya Sharma said...

@Mandan Jha Thank You


@Surya Prakash Pandey har bachpan suhana bana rahe, bas itni si umeed hai :)