जीवन है तू गगन-गगरिया जल,
फिर भी क्यूँ मनु प्रीति निर्जल,
जो बाँटें तुझको मंथन की सीमा,
रह जाए बनके कुंठित शुष्क थल
अनंत अचंभित तेरा यायावर रूप
बनके गुप्त कुसुमित काल स्वरुप,
दोष जो तुझ में डाले ज्ञानी मल,
करे देह-आत्म का मर्म कुरूप
प्रजापति अखंड तेरे सर्व अध्याय
भू आकाल में तेरा न कोई पर्याय,
यदि कभी हो तेरा सृष्टि से लोप,
ओ! वीर-नीर नष्ट है फिर मेरा अभिप्राय
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