मेरे मन के अंतर्गृह में प्रभावी होती कात्यायनी
प्रवेश मत होना यथार्थ में तुम पहने कषाय वस्त्र,
सर्व खंडन हो जाएगा जग में मेरे शब्दों का त्रम,
बस कविता तू रह जायेगी बनके मेरी मिथ्यायनी
तेरे लोभ में हुआ मेरा जीव पथभ्रष्ट ओ दामिनी
कि तत्व ज्ञान के महंत भी लगे कल्पना विनाशक,
अब तेरा प्रभाव है इतना मेरी इंद्रियों में वज्रसार,
मेरी मत्स्या अब विष भी बरसे बनके संजीवनी
कल्पा तुम अपनी जटाओं में भरना अमृत वाणी
करके मेरे रिक्त मन का जग में निर्लज शंख नाद,
फिर संभव तेरे स्त्राव में बह जाएँ अनेक प्रतिबन्ध
और तू मिथ्या बन जाये मेरी सृष्टि की जीवन संगिनी...
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