Saturday, June 29, 2013

जीव - दोष (चित्र : राजकुमारी भरानी थिरूनल रानी पारवती बाई द्वारा राजा रवि वर्मा)






विष्कंभ के मोहभंग से मुग्ध 

पथभ्रष्ट मेरा आतुर जीव-दोष,

ढूंढ़ता कितने ही परिवर्तन प्रायः

जीवन गहन के वन्य-कोटर में ।


फिर अदंडित प्राणों की सरणी,

पश्चाताप के विशाल रसातल में 

एकीकृत करती अपने स्वयं को

विश्व संघर्ष की परिधीय पर ।


अतः बनके मनुष्यता का यथार्थ,

स्थानिकता से होता स्थान का विच्छेद 

तत्पश्चात बनके गुण पूरक-प्रेरक 

करते 'दोष' से 'जीव' का पुनर्जागरण ।



Thursday, June 27, 2013

गंगा का स्त्रोत एक लिंग नहीं (चित्र : द्वारा गोगी सरोज पाल)



तुम्हारी जटाओं में बहती गंगा बन
चेष्टा की थी मैंने जीवन कोपलों को
प्रेम की आड़ में अंकुरित करने की,
पर हे पुरुष तुम्हारी कुंठा से सजा था,
अपने ही लिंग बोध में लुप्त आवेग ।

तनुकृत करने लगी मेरे स्वयं को
तुम्हारी वो दुर्बल पुरुषार्थ त्रासदी
नियंत्रित अपने क्लांत प्रवाह में,
परंतु एक लिंग तेरी प्रोढ़ता की चोट,
नहीं लपेट पाई मेरे अस्तित्व को ।

मैं समर्थ रही अमूर्त कारावास से,
अपने मनोबल को सशक्त करने में,
और प्रतिशोध किया मेरे नारीत्व ने,
फिर अभित्रस्त करके तुम्हारा वीर 
बह चली गंगा संसार की प्रफुल्लता में,
तुम्हारे लिंग स्त्रोत से मुक्त होती हुई ।

Monday, June 24, 2013

नास्तिकता ( चित्र : द्वारा एफ.एन सूज़ा )








धार्मिक अवधारणा के स्वांग से 
उदासीन होता मेरा भिक्षुक मन,
लगाता निष्कपट प्रशन-बोधक चिन्ह
परम अस्तित्व के गुण में यथार्थ पर ।

फिर आस्तिक रसातल का स्मरण
काल्पनिक अवरोध की रेखा खींच देता,
जैसे किसी कुंठित रात्रि में बंदी मनुष्य
खोज करता अपनी जिजीविषा का ।

नास्तिकता से उत्पन कला सृजक
मुझे मुक्त कर देता दिव्य-दोष से,
और जीवन में अवचेतन ही परस्पर
बन जाता मानार्थ अज्ञेयवाद का ।

तत्पश्चात इस प्रकृति का वर्चस्व
अथाह हो जाता मेरी इन्द्रियों में,
और यत्र, तत्र, सर्वत्र एकत्रित हो जाती,
स्वयं संपन्न सिद्धि की अतिश्योक्ति ।

Saturday, June 8, 2013

अलगाव (चित्र : इन्सटालेशन द्वारा भारती खेर)





जब तक गुप्त है मेरी विकराल आत्म वेदना,     
सशक्त है वो अनगिनत तिरस्कृत दीवारें,
जिनके गुम्बज में दौड़ता संसार का संतोष,
और नीव में बसा मौन-संदेह बनके अनंत-राग

जब तक लुप्त है मेरा अनुचित सत्य रूपांतर,
सम्पूर्ण हैं वो अनंत कुंठाग्रस्त वादियाँ,
जिनकी प्रतिध्वनि में गूंजती मनुष्य अछूता,
और श्री में बसा अलगाव बनके आधुनिक-विषाद

Friday, May 24, 2013

जीवन - चित्र : द्वारा सोनू कुमार (ftii में cinematography, 3rd year के छात्र)





जीवन राख से बना एक बुलबुला 
और चिता में भस्म होती कुंठा,
जैसे अज्ञात मनुष्य के विचारों में
कल्पना ग्रस्त जीर्ण - शीर्ण यथार्थ ।

जीवन तुषार से बना एक महा कुंड
और बादलों में भाप बनती अभिव्यक्ति,
जैसे अप्रिय मनुष्य की सरलता में
चेतना ग्रस्त तामसिक विकार ।






Tuesday, April 30, 2013

जटाओं में विलीन कामा - चित्र ( ब्रीफ एंकाउंटर द्वारा डेविड लीन )





तुम्हारी चहलकदमी संग यूँ ही फिरते हुए,
जीवन के नीरस स्वांग को नापते समय,
पाये मैंने प्रेम के वायुमंडल के सभी रहस्य,
जो मेहकें अनंत काल तक मेरी जटाओं में ।

फिर जब संवेदना में शोक ग्रस्त हो सखियाँ,
तुम मेरी इन जटाओं में उँगलियाँ फेर कर,
उनसे कहना की भस्म न करें इन्हें चिता में,
क्यूँकी बहता है इनकी युक्तियों में प्रेम रस ।

और तीव्र बढ़तीं हुई यह काल सर्प योगिनी,
पञ्च तत्व में लुप्त रखे मेरी निर्दोष वासनायें,
कि जब पुन आगमन हो मेरा तुम्हारी मृदुता में,
प्रणय कि साक्षी रहे ये कालिनी अन्य पक्ष से ।

Wednesday, March 27, 2013

मृगतृष्णा




दुष्ट रूप ले मेरे मन,
लगा ठहाके संसार पर,
बनके देव- मर्त्य स्वरुप ।

भरके कंठ में चंड राग, 
कर स्वयं का दाह संस्कार,
बनके मृत्यु पद-प्रदर्शक |

Saturday, February 16, 2013

प्रेम के अविनाशी समूह ( चित्र : द्वारा अनुपम सूद )





आओ उग्र प्रेमी बनके एक दुसरे को निहारें,
कि हमारी गतिहीन आत्माएँ सूचित हो जाएँ,
संकोची जीवन के निधन की बाहें पकड़ने में,
और हम बंदी बन जाएँ अपनी रूमानी समामेलन के।

आओ अबोध प्रेमी बनके एक दुसरे को पुकारें,
कि हमारा समय भी धूल में परास्त हो जाये,
स्वयं को प्रेम के वशीकरण में ढालने के लिए,
और हम बंदी बन जाएँ अपनी त्यक्त कल्पनाओं के।

आओ अटल प्रेमी बनके एक दुसरे को संवारें,
कि स्तंभ हो जाये आदर्श समाज का अवगुंठन,
अपनी दुष्टता को प्रेम मधु में आश्रय देने के लिए,
और हम बंदी बन जाएँ अपनी प्रच्छन्न अधीनता के।

Thursday, January 10, 2013

संघर्ष (सामिष, पशु प्रेमी और तुच्छता ) - ( चित्र : पाब्लो पिकासो )



मेरे साथ अकसर ऐसा होता है कि मेरे पाप और पुण्य मुझे अपने बीच की विभाजित रेखा पर खड़ा करके एक दुविधा में डाल देते हैं । ये दोनों ही विशेताएँ मेरी नज़दीकी हैं, जैसे मेरे दो हाथ, तो इनसे किसी भी प्रकार का छुटकारा पाना अस्पृश्य रूप से शायद असंभव हो । वैसे एक बात और भी है कि शरीर के पास अपनी असहमति के तर्क भरपूर होते हैं परन्तु आत्मा या मन हमेशा पाप और पुण्य की दुविधा में अपांग साबित हुए हैं । इस संकट का उदहारण एक जीव के प्रति दुसरे जीव की प्रतिक्रिया से स्पष्ट होता है । सरल शब्दों में बात कुछ यूँ है कि मैं माँसाहारी हूँ परन्तु किसी भी पशु पर अत्याचार होते देख मेरी आत्मा और मन तिलमिला जाते हैं । बहुत अजीब बात है की किसी चिकेन और मीट शॉप पर जाकर मुर्गे या बकरे को कटता देख आँखें भींच लेती हूँ और उसी को फिर आँखों में चमक और लार टपकाते हुए खाती हूँ । इसी प्रकार मूक जीव पर किसी बातूनी जीव का अत्याचार देख कर आँखें नाम हो जाती हैं, उसे बचाने को कदम बढ़ते हैं, फिर चाहें अपने निर्माण सम्बन्धी एकांत में किसी और जीव के माँस को दांत और जीभ दोनों तरस रहे हों । बहुत ही दोगुना मानक स्वाभाव है यह जहाँ राम और रावन बनके पाप और पुण्य दोनों ही आपकी आत्मा पर हावी रहते हैं । पर शायद इससे भी ज्यादा आशचर्य की बात यह है कि जीव शोषण के समय मेरे राम ही आत्मा और मन पर अधिकार जमाते है और मुर्गे या बकरे का मज़ा लेते हुए मेरे रावन सिर्फ उस पर हावी रहते हैं । ऐसा क्यूँ नहीं होता कि दोनों अपने स्थान का प्रातिदान कर लें, आखिर हैं तो दोनों मेरे ही मन कि उपज जिसे स्वत: मेरी इन्द्रियां एक जैसा ही सींचती हैं । इस बात को यहाँ लिख कर मेरे पाप और पुण्य कि दुविधा में कोई कमी नहीं आएगी परन्तु स्थिति अनुसार मेरे राम और रावन एक दुसरे पर प्रशन चिन्ह अवश्य दाग देंगे । फिलहाल कठोर सत्य यह ही है कि मैं पशु प्रेमी और माँसाहारी दोनों हूँ और मुझे अपने पर घृणा और गर्व दोनों हो रहे हैं...तुच्छ मनुष्य हूँ मैं, शायद ।

Saturday, December 22, 2012

नारी ( चित्र : महिषासुर मर्दिनी, महाबलीपुरम )



नारी नारी नारी
जगत जनम जननी,
नारी नारी नारी
ह्रदय सम्मोहन संगिनी,
नारी नारी नारी 
प्रेम मधुर अर्धांगिनी,
नारी नारी नारी
त्रिलोक व्यथा विनाशिनी,
नारी नारी नारी
हरजाई नर पिशाचिनी,
नारी नारी नारी
महिषासुर वध मर्दिनी, 
नारी नारी नारी
संबोधन व्यक्तिवाचक 'दामिनी'...






Thursday, December 20, 2012

मेरी स्कर्ट से ऊँची मेरी आवाज़ है...



कपड़े तू फाड़े और लाज बचाऊँ मैं,
नज़र तेरी बुरी और आँचल ओढूँ मैं,
इज्ज़त तेरी बढ़े और कोठा सजाऊँ मैं
बीस्ट तू बने और ब्रेस्ट छुपाऊँ मैं,
पाप तू करे और शोक मनाऊँ मैं,
कीचड़ तू उछाले और ताने खाऊँ मैं,
भूख तुझे लगी और लहू बहाऊँ मैं...

Monday, December 10, 2012

मृत अनह्र से क्षमा याचना - (चित्र : अंजलि इला मेनन)




मुझे क्षमा कीजिये मेरे मृत अनहृ यदि मैं आपकी अंतिम यात्रा सम्बन्धी अनुष्ठानों में नहीं आ सकी |इस नैतिक रूप से घृणित फैसले की वजह सिर्फ मेरा डर है जो मुझे मूक और शुष्क बना देता है | डर स्वयं की अंतिमयात्रा की कल्पना या आग में भभकते मेरे हड्डी-मांस में मिश्रित उन लकड़ियों की चुभन का नहीं | परन्तु स्पष्ट मार्ग से आता एक ऐसा आकस्मिक डर जिसमें मेरे अंतर्ज्ञान को प्रकृति के उस छोटे से कण के विनाश का, यानि की तुम्हारा मेरे मृत अनह्र, आभास पूर्व ही हो जाता है |इस वरदान या शाप के पीछे मेरे पास कोई तर्क नहीं बस इतना की ये मुझे मेरे स्वयं के सामने बहुत मजबूर और अपराधी-सा बना देता है | यदि तुम्हारी राख की मर्म में पड़े सिक्के मेरे पास लौट आयें, तो मैं उनसे हमारे क्षणों के संस्मरण में संतरे की गोलियाँ फिर से खाके अपने डर के अपराध-बोध से मुक्त हो जाऊँ...

Thursday, December 6, 2012

दुनिया ( चित्र : 'लास्ट जजमेंट' द्वारा मैकलएंजेलो )




दीवारों पे चिपकी खूनी पीक तू,
नंगे शिशु की अभागी चीख तू,
बाँझ की ममता भरी कोख तू,
दीन की जीभ पे लटकी भूख तू,
सत्य के चीथड़े मलबे में झोंक तू,
भोले को घिसते खुरों में ठोक तू, 
अरमानों में घुसा महंगी नोक तू,
गलते मांस की गंध न रोक तू,
पाप की ख्याति से न चूक तू,
दूषण बहती हवा में रह मूक तू,
क्रोध के अंगारे मुंह से फूँक तू ,
आ दुनिया मुझ पे मैल थूक तू...

Monday, November 26, 2012

वैश्यावृत्ति (चित्र : द्वारा एफ.ऍन.सूज़ा)




रात की अवैध सिलवटों के समक्ष,

किसी अन्तराल के मोहभंग में गुम,

न जाने क्यूँ मेरी आत्मा भटकती है,

नंगेपन के वशीकरण का प्रयास कर,

निरर्थक शुधि का अस्तित्व ढूंढ़ती हुई ।




यत्र, तत्र और सर्वत्र मैं बंधी बन जाती,

और वैश्यावृत्ति की सरणी में गोपनीय,

मानव अपराधों के रसातल का उपग्रह,

मेरा नश्वर शरीर मेरी गौण आत्मा पर,

नग्न-बोधक चिह्न को उत्कीर्ण कर देता ।



Wednesday, October 17, 2012

जिजीविषा ( चित्र : 'द कलर ऑफ पोमेग्रनेट्स' द्वारा 'सेर्गी पाराजनोव' )





यदि होता अपरिचित बहते रक्त का,
जिजीविषा से बाध्य मनभावन स्वरुप,
मेरी विरक्त आत्मा की प्रतिध्वनि
लयबद्ध विलक्षण का प्रतिच्छेद करती,
और तनुकृत हो जाते असंख्य काव्य
मेरी शिशु जैसी निष्कलंक चेतना पर ।


यदि श्वास से उत्पन घर्षण संग होता,
जिजीविषा का सुस्थिर एकीकारण,
मेरे निषेधित शून्य जीवन की लय,
अपरिहार्य क्षय को भी तेजस्वी करती,
तत्पश्चात उस माधुरी का उत्सर्जन भी
मेरे पात्र की स्मृति में संगत हो जाता ।

Monday, September 24, 2012

व्यक्तिवाचक संज्ञा का अपराध बोध (चित्र : सतीश गुजराल)





अपनी सबसे प्रिय चीज़ को व्यक्तिवाचक संज्ञा की श्रेणी में रखना मेरी अंतरात्मा को सदेव के लिए ऋणी बना देता है | क्यूंकि व्यक्तिगत संज्ञा का चयन करना हमेशा मेरे मनोबल पर एक अंतराल चिन्ह लगा कर उस पर असंतुष्टि का कोई रहस्मय प्रयोग करता रहता है | इस दुविधा में फसने का कारण यह नहीं कि मेरा मन अस्थिरचित है या फिर शायद इस चयन के काल्पनिक परिणाम को लेकर मैं विमूढ़ हो जाती हूँ | बल्कि यह कि मुझ से किसी प्रिय चीज़ के चुनाव के पश्चात् पुनः उसके मूल रस कि सृष्टि की पुनरावृत्ति करना असंभव हो जाता है | मेरे स्वयं से तर्क सम्बन्ध रखता हुआ एक सत्य यह भी है की यदि कोई चीज़ सबसे प्रिय है तो उसका चुनाव करके हम ये सिद्ध कर देते हैं की वो वस्तु हमें निरपेक्ष सुख ना प्रदान करके मात्र सापेक्षिक इच्छाओं की पूर्ति का एक बिम्ब था | पक्षपात से कोई चीज़ प्रिय कैसे हो सकती है यद्दपि उसका तत्व कभी हमारी इन्द्रियों पर अपनी छवि को पूर्ण रूप से स्थायी नहीं कर पाया है | मनभावन के चुनाव के समय यदि उस प्रिय वास्तु की तुलना में अन्य व्यक्तिवाचक संज्ञाएँ अपने प्रसंग का महत्व हमारे मन में जागृत कर देती हैं तो कोरे कागज के सामान स्पष्ट है की वो वस्तु कभी भी हमारे लिए व्यक्तिगत थी ही नहीं | संक्षेप में, उस व्यक्तिवाचक संज्ञा को संबोधित करता प्रिय शब्द हमारे लिए सिर्फ हिंदी शब्दकोष में लिखा एक मूर्त शब्द है...



Saturday, September 8, 2012

प्रकृति का वर्चस्व (चित्र : फिल्म - 'टेस्ट ऑफ चेरी' - द्वारा 'अब्बास किरोस्तामी'



                                   हे प्रकृति फैला दो अपने सौन्दर्य का वर्चस्व,
और कर दो मेरे रक्तरंजित अस्तित्व को हरा,
यदि मैं भटक जाऊँ निष्कपट अपने विकार में,
तुम मुझे अपने शुन्यतम में विश्राम करने देना |


हे प्रकृति छिपा लो इस धर्मयुद्ध को अपने निवास में,
और उत्कीर्ण कर दो मेरे अवसाद में हिम नील वर्ण,
यदि रहूँ मैं अपने अपराध-बोध के फंसाव में ग्रस्त,
तुम पछुआ हवा से मेरे विध्वंस पर ग्रहण लगा देना ।




Sunday, August 19, 2012

पश्चाताप : अब्बास किअरोस्तामी की फिल्म FIVE से प्रेरित (तस्वीर: सोनू कुमार - एफ.टी.आई.आई)






हे वीर-नीर गगन गगरिया 
निगल जा मेरे अभेद मन की
गंदगी को अपनी पूर्णता में,
और मिश्रित कर दे मेरा 
मेरा समूचा कूड़ा-कड़कट, 
धैर्य से एकाग्रित - 
वो विचारों की खुराक 
अपने इस अवैध रसातल में, 
और उभरने दे मेरी नाक से 
शरीर के कण-कण को- 
पश्चाताप के बुलबुलों की तरह, 
इस सृष्टि के एकांत-प्रवाह में... 




















































































































Wednesday, August 15, 2012

दर-बदर (तस्वीर : सोनू कुमार - एफ.टी.आई,आई)






चल मेरे मन दर-बदर,
बेख़ौफ़ चल तू आज फिर -
थर-थराती ज़मीन पर,
गाड़ियों के बीच से,
अपनी आज़ादी खींच के,
पक्षियों को छोड़ के-
दूर किसी छोर पे,
लाल रंग में डूब के,
आसमान में चीखे भूल के,
अपनी आखें मूँद के,
चल मेरे मन दर-बदर,
थर-थराती ज़मीन पर...



Tuesday, July 24, 2012

विमुक्त फीनिक्स (चित्र:फिल्म 'साइलेंस' द्वारा इंगमर बर्गमैन)




रक्त में बहते अभेद्य अंधकार
को समझने की चेष्टा करते हुए,
रसातल से मेरी आत्मा को -
मुक्त किया प्रेम ने,
और तब जीवन मृत्यु की
कामुक आर्क की तरह
मुझे स्मरण हुआ -
अंधकार और मौन का
मेरे साथी - एकमात्र
प्रेम से वंचित दिनों में,
फिर इद्रियों के पंखों को
फैलाते हुए-
बनके फीनिक्स का रूपक
एकांत की सलाखों में
आनंद लेती आत्मा
प्रेम में उभरती - विमुक्त ।