Saturday, December 22, 2012
Thursday, December 20, 2012
Monday, December 10, 2012
मृत अनह्र से क्षमा याचना - (चित्र : अंजलि इला मेनन)
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New Delhi, Delhi, India
Thursday, December 6, 2012
दुनिया ( चित्र : 'लास्ट जजमेंट' द्वारा मैकलएंजेलो )
दीवारों पे चिपकी खूनी पीक तू,
नंगे शिशु की अभागी चीख तू,
बाँझ की ममता भरी कोख तू,
दीन की जीभ पे लटकी भूख तू,
सत्य के चीथड़े मलबे में झोंक तू,
भोले को घिसते खुरों में ठोक तू,
अरमानों में घुसा महंगी नोक तू,
गलते मांस की गंध न रोक तू,
पाप की ख्याति से न चूक तू,
दूषण बहती हवा में रह मूक तू,
क्रोध के अंगारे मुंह से फूँक तू ,
आ दुनिया मुझ पे मैल थूक तू...
Monday, November 26, 2012
वैश्यावृत्ति (चित्र : द्वारा एफ.ऍन.सूज़ा)
रात की अवैध सिलवटों के समक्ष,
किसी अन्तराल के मोहभंग में गुम,
न जाने क्यूँ मेरी आत्मा भटकती है,
नंगेपन के वशीकरण का प्रयास कर,
निरर्थक शुधि का अस्तित्व ढूंढ़ती हुई ।
यत्र, तत्र और सर्वत्र मैं बंधी बन जाती,
और वैश्यावृत्ति की सरणी में गोपनीय,
मानव अपराधों के रसातल का उपग्रह,
मेरा नश्वर शरीर मेरी गौण आत्मा पर,
नग्न-बोधक चिह्न को उत्कीर्ण कर देता ।
Wednesday, October 17, 2012
जिजीविषा ( चित्र : 'द कलर ऑफ पोमेग्रनेट्स' द्वारा 'सेर्गी पाराजनोव' )
यदि होता अपरिचित बहते रक्त का,
जिजीविषा से बाध्य मनभावन स्वरुप,
मेरी विरक्त आत्मा की प्रतिध्वनि
लयबद्ध विलक्षण का प्रतिच्छेद करती,
और तनुकृत हो जाते असंख्य काव्य
मेरी शिशु जैसी निष्कलंक चेतना पर ।
यदि श्वास से उत्पन घर्षण संग होता,
जिजीविषा का सुस्थिर एकीकारण,
मेरे निषेधित शून्य जीवन की लय,
अपरिहार्य क्षय को भी तेजस्वी करती,
तत्पश्चात उस माधुरी का उत्सर्जन भी
मेरे पात्र की स्मृति में संगत हो जाता ।
Monday, September 24, 2012
व्यक्तिवाचक संज्ञा का अपराध बोध (चित्र : सतीश गुजराल)
अपनी सबसे प्रिय चीज़ को व्यक्तिवाचक संज्ञा की श्रेणी में रखना मेरी अंतरात्मा को सदेव के लिए ऋणी बना देता है | क्यूंकि व्यक्तिगत संज्ञा का चयन करना हमेशा मेरे मनोबल पर एक अंतराल चिन्ह लगा कर उस पर असंतुष्टि का कोई रहस्मय प्रयोग करता रहता है | इस दुविधा में फसने का कारण यह नहीं कि मेरा मन अस्थिरचित है या फिर शायद इस चयन के काल्पनिक परिणाम को लेकर मैं विमूढ़ हो जाती हूँ | बल्कि यह कि मुझ से किसी प्रिय चीज़ के चुनाव के पश्चात् पुनः उसके मूल रस कि सृष्टि की पुनरावृत्ति करना असंभव हो जाता है | मेरे स्वयं से तर्क सम्बन्ध रखता हुआ एक सत्य यह भी है की यदि कोई चीज़ सबसे प्रिय है तो उसका चुनाव करके हम ये सिद्ध कर देते हैं की वो वस्तु हमें निरपेक्ष सुख ना प्रदान करके मात्र सापेक्षिक इच्छाओं की पूर्ति का एक बिम्ब था | पक्षपात से कोई चीज़ प्रिय कैसे हो सकती है यद्दपि उसका तत्व कभी हमारी इन्द्रियों पर अपनी छवि को पूर्ण रूप से स्थायी नहीं कर पाया है | मनभावन के चुनाव के समय यदि उस प्रिय वास्तु की तुलना में अन्य व्यक्तिवाचक संज्ञाएँ अपने प्रसंग का महत्व हमारे मन में जागृत कर देती हैं तो कोरे कागज के सामान स्पष्ट है की वो वस्तु कभी भी हमारे लिए व्यक्तिगत थी ही नहीं | संक्षेप में, उस व्यक्तिवाचक संज्ञा को संबोधित करता प्रिय शब्द हमारे लिए सिर्फ हिंदी शब्दकोष में लिखा एक मूर्त शब्द है...
Saturday, September 8, 2012
प्रकृति का वर्चस्व (चित्र : फिल्म - 'टेस्ट ऑफ चेरी' - द्वारा 'अब्बास किरोस्तामी'
हे प्रकृति फैला दो अपने सौन्दर्य का वर्चस्व,
और कर दो मेरे रक्तरंजित अस्तित्व को हरा,
यदि मैं भटक जाऊँ निष्कपट अपने विकार में,
तुम मुझे अपने शुन्यतम में विश्राम करने देना |
हे प्रकृति छिपा लो इस धर्मयुद्ध को अपने निवास में,
और उत्कीर्ण कर दो मेरे अवसाद में हिम नील वर्ण,
यदि रहूँ मैं अपने अपराध-बोध के फंसाव में ग्रस्त,
तुम पछुआ हवा से मेरे विध्वंस पर ग्रहण लगा देना ।
Sunday, August 19, 2012
Wednesday, August 15, 2012
Tuesday, July 24, 2012
विमुक्त फीनिक्स (चित्र:फिल्म 'साइलेंस' द्वारा इंगमर बर्गमैन)
को समझने की चेष्टा करते हुए,
रसातल से मेरी आत्मा को -
मुक्त किया प्रेम ने,
और तब जीवन मृत्यु की
कामुक आर्क की तरह
मुझे स्मरण हुआ -
अंधकार और मौन का
मेरे साथी - एकमात्र
प्रेम से वंचित दिनों में,
फिर इद्रियों के पंखों को
फैलाते हुए-
बनके फीनिक्स का रूपक
एकांत की सलाखों में
आनंद लेती आत्मा
प्रेम में उभरती - विमुक्त ।
Thursday, July 12, 2012
घना-जंगल (स्वप्न बनाम यथार्थ) - चित्र: साल्वाडोर डाली
Wednesday, July 4, 2012
अककड़-बककड़
अककड़-बककड़, धूम-धड़क्का
धूम-धड़क्का, अककड़-बककड़
आसमान में बादल कड़का
कड़-कड़,कड़-कड़ बादल कड़का
बूंदों की टिप-टिप से
गर्मी का हुआ बम्बे बो,
घड़ी की सुईं हैं भागे अब
अस्सी नब्भे और पूरे सौ
टिक-टिक करती भागे सुईं
भागी सरपट चुहिया मुई
अककड़-बककड़, धूम-धड़क्का
धूम-धड़क्का, अककड़-बककड़
बककड़-अककड़, अककड़-बककड़
आसमान में बादल कड़का
कड़-कड़,कड़-कड़ बादल कड़का
कड़क-कड़क के बादल कड़का
ठंडी हवा का निर्मल रस
चाय कि चुस्की संग जागा
गीली मिटटी कि खुशबू से
आसमान का रंग है ताज़ा
और उमस का भपका
दुम दबा के सरपट भागा
आसमान में बादल कड़का
कड़-कड़,कड़-कड़ बादल कड़का
कड़क-कड़क के बादल कड़का
अककड़-बककड़, धूम-धड़क्का
धूम-धड़क्का, अककड़-बककड़
अककड़-बककड़, धूम-धड़क्का
धूम-धड़क्का, अककड़-बककड़
अककड़-बककड़, धूम-धड़क्का
धूम-धड़क्का, अककड़-बककड़
बककड़-अककड़, अककड़-बककड़
Monday, July 2, 2012
बावरिया
बनके माट्टी, बनके टहनी
खोजूँ तुझको मैं बावरिया
कुसुम उद्धारक मेघ ना बरसे
और अंखियों में प्रेम गगरिया
पलचिन पीहू तुझको पुकारूँ
परबत पे चलके मैं कांवडिया
गंगा की तट पे चंदा की धारा
और मेरे गेसू में खिले रात कजरिया
पग पग धरती पे साँवरिया
बनके माट्टी, बनके टहनी
खोजूँ तुझको मैं बावरिया
Thursday, June 28, 2012
वाणी का अस्तित्व
![]() |
(तस्वीर - द्वारा सोनू कुमार, फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्युट ऑफ इंडिया, पुणे) |
शब्दों के लिए,
या भावनाओं के लिए,
कौन सुनता है?
इन शब्दों को,
कोई मित्र,
या कोई अजनबी?,
या वह भंग हो जाते
इस ब्रह्माण्ड में?
क्या है वाहन,
इन शब्दों का?
श्वास में छिपी वायु?
और भावनाएँ
किस प्रवाह में?
दिशाहीन -
शब्दों से वंचित,
वायु कि स्मृति में,
अब एक अजनबी -
अनगिनत शब्दों कि |
मेरे श्रोता खोजते
मेरे शब्दों को,
मेरी भावनाएँ खोजें
अपने श्रोता को,
तत्पश्चात गुप्त है-
कारण मेरी वाणी का,
इन हवाओं में खोजता
मिश्रण शब्दों का -
श्रोता से -
अंत में स्थायी भावनाओं से |
Wednesday, June 27, 2012
महाचित्र (सन्दर्भ - गैंग्स ऑफ वासेपुर)
जब से मैंने ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर" देखी है मेरी चर्चा प्रवत्ति इस फिल्म की श्रेणी की गुत्थी सुलझाने में अस्थिरचित्त महसूस कर रही है, मैं इसका सारांश अपने जानने वालों को एक महाकाव्य के रूप में दूँ या फिर इस पर एक मसाला चलचित्र का ठप्पा लगा दूँ | हालाँकि जब भी कोई फिल्म बनती है उसका मुख्या उद्देश्य जनता जनार्दन का मनोरंजन करना ही होता है इसलिए मैं इस फिल्म कि श्रेणी के लिए एक नए सुविधाजनक शब्द का निर्माण कर रही हूँ ‘महाचित्र’ | फिल्म के निर्देशक बहुबली अनुराग कश्यप जी क्षेत्रवाद के माध्यम से अपना मनचाहा दिखाके सिनेमा कि नयी तरंग के मास्टर अवश्य बन गए होंगे परन्तु उस कहर का क्या जो इस ‘महाचित्र’ के द्वारा दर्शकों के विचारों कि व्याख्या में आत्मसात हो गया है | थिएटर से बाहर निकलते समय सबसे सामान्य स्टेटमेंट जो लोगों को कहते सुना वो यह था, ‘फिल्म ने कन्फ्यूज कर दिया’ | मनोरंजन का भी हमेशा कोई न कोई वैध तर्क होता है नहीं तो मनोरंजन फूहड़ और दर्शक मुर्दा कौम हो जाती है और अपनी सबसे बड़ी समीक्षक को ऐसी उलझन में छोड़ देना सिनेमा का साढ़े सत्यानाश कर देना है |
जैसा कि कहते हैं कि हर बात के विभिन्न कोण होते हैं वैसे ही इस ‘महाचित्र’ का अपना ‘गुड, बैड एंड अगली’ रूप है जिस पर इस फिल्म से जुड़े हर सदस्य को गर्व होना चाहिए फिर चाहें आलोचना के दिग्गज इसका विभाजन करके इसकी धज्जियाँ ही क्यूँ ना उड़ा दें | अगर सिर्फ कहानी और पटकथा पर ध्यान दें, जिसका श्रेय सचिन लाडिया, अखिलेश, ज़ीशान कादरी को जाता है, तो यह अवश्य प्रशंसा के योग्य है जिसमें कोयले कि खान में पनपती रुखाई से इजाद होती कहानी किसी के बदले कि गाथा बन जाती है जो समय के साथ उन खानों जैसी सख्त हो गयी है और सत्य ही तो है कि प्रतिशोध कि जड़ें हमेशा प्रकृति कि गोद में कहीं छिपी रहती हैं और समय के साथ जैसे प्रकृति परिवर्तन लेती है प्रतिशोध भी हमारे जीवन में विभिन्न रूपों में स्थायी हो जाता है | इन्ही कोयेलों कि खानों में निर्देशक अनुराग कश्यप सिनेमा के सौंदर्यशास्त्र का हीरा खोजने गए थे परन्तु अत्यधिक कामुकता, अश्लील संवादों, रक्तपात ने इस
फिल्म में बदले के सार को एक मज़ाक का रूप दे दिया | जिस क्षेत्र कि ये फिल्म है वहाँ ऐसी क्रिया और प्रतिक्रिया बहुत साधारण बात है परन्तु यह निर्देशक का काम है देखना कि कौन सी बात या कहानी किस तरह से और किस मात्रा में लोगों के समक्ष परोसी जाये क्यूंकि आप शायद नहीं चाहते हैं कि आपके दर्शक यानि प्रशंसक खंडित हो जाएँ | फिल्म में यदि पियूष मिश्रा जी का व्यवधान कथन नहीं होता तो शायद दर्शक थिएटर से बहार निकल कर रिक्त अवस्था में होते और विवरण का उपयोग पटकथा और निर्देशन में बहुत समझदारी से किया गया है, इसलिए यह एक और कारण
है इसे ‘महाचित्र’ का नाम देने के पीछे |
कलाकारों में सब ने लोहा गर्म देख कर अपनी अदाकारी का हतोड़ा मारा है चाहें हो मनोज बाजपाई, पियूष मिश्रा, जैसे मंझे हुए कलाकार हों या फिर समीक्षाओं में कम चर्चित नवाज़ुद्दीन’ सिद्दीकी, जयदीप अहलावत | मनोज बाजपाई का नाम अब कला के दिग्गजों में रख देना चाहिए क्यूंकि अब वो वास्तव में किसी बहुबली या जीनियस से कम नहीं| निर्देशक तिग्मांशु धुलिया के अभिनय ने उनकी प्रतिभाशैली में चार चंद लगा दिए हैं और यह बात कोरे कागज जितनी साफ़ है कि वो एक अच्छे निर्देशक के साथ-साथ एक अच्छे कलाकार भी हैं| फिल्म कि अभिनेत्रियों ने भी अपनी कला का परचम पूरी जोर से लहराया है क्यूंकि अगर नगमा खातून यानि रिचा चड्डा नहीं होंतीं तो सरदार खान शायद प्रतिशोध में गुप्त अपनी निष्ठुरता का दम शायद दुश्मन को नहीं दिखा पाते | सभी कलाकारों के
अभिनय पर ज़ोरदार तालियाँ बजाते हुए एक बात मैं ज़रूर कहूँगी कि फिल्म के मुख्य पात्र शाहिद खान (जयदीप अहलावत) हैं जिन्होंने इस बदले कि भावना कि नीव रखकर इस फिल्म का आरम्भ किया और इसका विस्फोटक अंत फैज़ल खान (नोवाज़) कि चुप्पी में पनप रहा है जो दूसरे भाग के मुख्य पात्र हैं क्यूंकि कोयले कि खानों में कोयला और उससे निकलता हीरा ही असली मूल्य रखता है | दर्शक अवश्य अभिनेता कि पूर्वकल्पित छवि से बहार निकल गए होंगे कि अच्छा अभिनेता होना मतलब यह नहीं आपका रंग गोरा हो, आप गीत गायें, आप डोलें उठायें तो आपकी कमीज़ फट जाये इतियादी | बस एक ही कमी खली कि किसी कि भी अदाकारी आम जनता कि भावना को प्रज्वलित नहीं कर पाई और थिएटर में मुझे वाह वाही कि जगह निंदा भरे ठहाकों कि गूँज अधिक सुनाई दे रही थी | फिल्म के संगीत ने एक नयी तरंग को जीवित किया है पर यह तरंग जीवन भर का संगीत नहीं बन सकती | चाहें गाना ‘इक बगल में चाँद होगा’ हो या ‘वोमनिया’ ये शीघ्र ही अपने जीवन काल के ब्लैक होल में पहुँच जायेंगे | जिया रे बिहार के लाला गीत को फिल्म के अंत में दिखाने का वैध कारण मुझे नहीं ज्ञात होता क्यूंकि भला किसी दमदार
व्यक्ति की इतनी उदासीन मृत्यु दिखाते वक़्त आप ऐसा मनमौजी गाना क्यूँ सुनाना चाहोगे ? गानों के बोल एकदम ज़बरदस्त हैं और गीतकारों कि गेय भावना पूरी तरह सराहनीय है परन्तु आज से 5 साल बाद लोगों को धुन गुनगुनाने के समय सिर्फ संगीत याद रहेगा बोल नहीं और इन गीतों में संगीत के श्रोता बहुत सिमित हैं और अच्छा गाना तो वो होता है जिस पर हर कोई गुनगुनाये या सबके पैर थिरकें |
निष्कर्ष येही निकलता है कि इस फिल्म के विभिन्न भागों को देखा जाये तो यह एक मास्टर पीस है परन्तु अगर इन टुकड़ों को जोड़ कर यदि इस फिल्म कि पहेली को सुलझाने कि चेष्टा कि जाये तो यह अपरिपक्वा घप्लेब्बाजी के अलावा कुछ नहीं |इस फिल्म को आप अवश्य एक बार देख सकते हैं और आपके एक बार के पैसे वसूल हो भी जायेंगे बहरहाल तार्किक अथवा मानसिक अनुस्मरण के लिए आपके पास कुछ नहीं रहेगा | अनुराग कश्यप और अन्य सभी को हज़ार निन्दाओं के बावजूद भी इस फिल्म को अपने हृदय से लगा के रखना चाहिए क्यूंकि संतान का तिरस्कार चाहें पूरा जग करे वो सदेव माता-पिता कि आँखों का तारा ही रहता है | इस फिल्म से जुड़े सभी को शुभकामनायें देते हुए मैं यह उम्मीद करती हूँ कि अगला भाग दर्शकों कि उस नस को छु लेगा जिसका प्रतिबिंब आखों में विभिन्न भावनाओं के रूप में स्पष्ट नज़र आता है |
निष्कर्ष येही निकलता है कि इस फिल्म के विभिन्न भागों को देखा जाये तो यह एक मास्टर पीस है परन्तु अगर इन टुकड़ों को जोड़ कर यदि इस फिल्म कि पहेली को सुलझाने कि चेष्टा कि जाये तो यह अपरिपक्वा घप्लेब्बाजी के अलावा कुछ नहीं |इस फिल्म को आप अवश्य एक बार देख सकते हैं और आपके एक बार के पैसे वसूल हो भी जायेंगे बहरहाल तार्किक अथवा मानसिक अनुस्मरण के लिए आपके पास कुछ नहीं रहेगा | अनुराग कश्यप और अन्य सभी को हज़ार निन्दाओं के बावजूद भी इस फिल्म को अपने हृदय से लगा के रखना चाहिए क्यूंकि संतान का तिरस्कार चाहें पूरा जग करे वो सदेव माता-पिता कि आँखों का तारा ही रहता है | इस फिल्म से जुड़े सभी को शुभकामनायें देते हुए मैं यह उम्मीद करती हूँ कि अगला भाग दर्शकों कि उस नस को छु लेगा जिसका प्रतिबिंब आखों में विभिन्न भावनाओं के रूप में स्पष्ट नज़र आता है |
--सौम्या शर्मा
Monday, June 25, 2012
दर्पण छवि (समीक्षा – सन्दर्भ : लघु फिल्म श्वेत द्वारा ‘कंचन घोष’)
नियति को हमेशा किसी व्यक्ति को उसके जीवन की छवि अपने दर्पण में दिखाने का मार्ग मालूम रहता है इसलिए शायद सिनेमा से ज्यादा साफ़ और सटीक कोई माध्यम नहीं जिसमें आप अपने अप्रत्यक्ष विचारों की वास्तविक प्रतिक्रिया देख सकते हैं | कुछ इसी प्रकार से मेरे भीतर के स्व के प्रतिबिंब को मुझे निर्देशक कंचन घोष की लघु फिल्म ‘श्वेत’ के द्वारा देखने का अवसर मिला है | फिल्म में मूर्त एवं अमूर्त पीड़ाओं के अंत की समानता को दर्शाया गया है, जो कि मेरे अनुसार एक दूसरे कि दर्पण छवि होती हैं | फिल्म से पूर्व दिखाए जाने वाली वैधानिक चेतावनी वास्तविक जीवन की घटनाओं के साथ संयोगिक हो सकती है परन्तु इस फिल्म से जो अध्यात्मिक सम्बन्ध पैदा होता है वो दर्शकों के समक्ष एक अतिसार के रूप में प्रकट किया गया है | कंचन घोष का सरल और सूक्ष्म निर्देशन इस फिल्म में उपस्थित सामाजिक सन्देश के ऊपर ना सिर्फ एक विशेष धारणा आत्मसात करता है परन्तु इसे देखने वाले के विचारों को एक निष्पक्ष व्याख्या करने की पूर्ण स्वतंत्रता देता है | एक अच्छी फिल्म वही होती है जो आपको किसी ज्ञान से प्रभावित ना करते हुए स्वयं को आपके विचारों के समक्ष स्वतंत्र छोड़ देती है | विभिन्न फिल्म समारोह में फिल्म की सफल प्रस्तुति अद्धुत निर्देशक कंचन घोष की विनम्रता को एक इंच से भी स्थानांतरित नहीं कर पाई है और इस फिल्म के बारे में पूछने पर उन्होंने कुछ इस प्रकार से मुझे उत्तर दिया, “मैं यह दावा नहीं करता की फिल्म में अधिक गौण पाठ्य है परन्तु मेरी सफलता इसी में है की ये स्क्रीन कहानी अपने सभी दर्शकों के संग एक सम्बन्ध प्रकट करते हुए एक अत्यंत गहरी विज्ञप्ति जारी कर सके” |
इस फिल्म को देखने के बाद मेरी प्रतिक्रिया कुछ इस प्रकार से थी कि हम हमेशा दूसरों के जीवन के माध्यम से हमारे भीतर और हमारे आसपास हो रही घटनाओं के विश्लेषण करते हैं |इस फिल्म कि शुरुआत में शायद दर्शकों को यह आभास हो सकता है कि यह किसानों और उनके क़र्ज़ कि वो ही पुरानी धारणा हमारे समक्ष प्रस्तुत कर रही है बहरहाल जैसे जैसे फिल्म आगे रोल होती है और आप उस निर्माता एवं निर्देशक कि आँखों से इस फिल्म कि घटनाओं का एहसास करते हैं तब आपको अपने जीवन के कुछ ऐसे पल याद आ जायेंगे जब आपके अंतर्मन में यह सवाल आया होगा कि “मैं कौन हूँ?मेरा अस्तित्व क्या है?” |एक अच्छे निर्देशक कि तरह कंचन घोष ने इस फिल्म कि मूल भावना को हर एक दृश्य के साथ पिरोया है| इसका शीर्षक ‘श्वेत’ एक दम उपयुक्त है क्यूंकि जीवन से पूर्ण और मृत्यु के पश्चात सब श्वेत है और इसके बीच के अंतराल में हमें जीवन कि अभिव्यक्ति के अज्ञात रूपों का एहसास होता है, जैसा कि फिल्म की टैग लाइन में भी कहा गया है “व्हेर लाइव्स मीट एंड कोलाईड”...
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Thursday, June 21, 2012
मनु बनाम ईश्वर (चित्र: फिल्म स्टॉकर)
जीवन त्रिकोण केंद्र में विराजमान कौन?
ईश्वर या मनुष्य?
यदि ईश्वर - तो केवल स्वयं का सत्य
हमारे लिए माननीय है,
यदि मनुष्य - तो वह एकांत ही
अपने राग को हास्य रूप देता है
यह राग-आत्मा और गुम्बज का घर्षण,
और इसमें सदेव गुप्त मनुष्य -
जैसे नवजात और असहाय शिशु,
क्यूँकी महान का सिद्धांत नरम है,
और व्यर्थ बल का प्रतीक,
जनम के रूपक हैं नरम एवं मासूमियत,
तत पश्चात मृत्यु के आगमन पर -
मनुष्य है कठिन और मजबूत
जैसे मिट्टी का बर्तन,
कठिन का विध्वंसक कोमल है -
अर्थात वांछनीय,
जैसे वसंत में इच्छित वृक्ष्य
और पतझड़ में प्रथक,
कोमलता जीवन का अवतार है,
कठिन मृत्यु का सारथी है - सदेव पराजित
और कोमलता गुप्त है-
मनुष्य हृदय के अथाह कुंड में ।
Tuesday, June 19, 2012
तराही मिसरा ग़ज़ल
तेरा उन्स जो बहता था मेरे जिस्म में लहू की तरह
अब वो गुम्साज़ है माज़ी में आँखों की गर्द बनके
तेरा ख्याल जो बहल करता था रूह को शगुफ्ता की तरह
अब वो फिरता है परिंदों का आवारा रहनुमा बनके
तेरा हर लफ्ज़ सजता था मेरे आशियाने में मैखाने की तरह
अब वो नशा भी बंद है इन दुनयावी दीवारों में स्याह बनके
तेरा फरमान बहता था चौबारे की हवाओं में तक्दीस की तरह
अब वो सड़कों पर तिलमिलाता है सुर्ख पत्तों का नाजोमी बनके...
Sunday, June 10, 2012
गीत - रात कजरारी (चित्र : मीराबाई)
रात कजरारी मोरे नैनं में तू यूँ छुप जाना,
की फिर ना करे बेईमानी मोसे तोरा चंदा - (२)
तारों की डोली में जब मैं पिया घर जाऊँ
तू चाँदनी के पथ से मृदुंग बजाते आना,
फिर तेरी आभा से सजी मोरी बिछिया
खेले पिया संग सेज पर आँख मिचोली,
और होले से पनघट पे सखियों से कहना
मृग रसिया चंदा ने नाज़ुक कलइयां मरोड़ी
रात कजरारी मोरे नैनं में तू यूँ छुप जाना,
की फिर ना करे बेईमानी मोसे तोहरा चंदा - (२)
फिर ना करूँ मैं नटखट बरजोरी तोसे
की तेरी मीठी ओढनी में सोया मोरा चंदा,
श्याम रूप धारी तू भोर की किरणों संग
चुपके से पग पग मोहरे अंगना में आना,
और मेरे केसुओं में मोगरे की गंध से
सजा देना पिया संग मोरी बत्तियाँ,
रात कजरारी मोरे नैनं में तू यूँ छुप जाना,
की फिर ना करे बेईमानी मोसे तोरा चंदा - (२)
Friday, June 8, 2012
गम के तरन्नुम में ख़ुशी
![]() |
(तसवीर : अमृता शेरगिल) |
आ ख़ुशी तुझे अपने गम के तरन्नुम में छुपा लूँ,
तू जो बढ़ा ले चुपके से एक कदम मेरे गुलफाम में
अपनी ख्वाइशों की बस्ती तेरी खुशबू से सजा दूँ,
यूँ तो वक़्त का मोहताज है तेरा हर अफसाना
बस यूँ ही तेरी मोसिकी में चंद अल्फाज़ लिख डालूँ,
आ ख़ुशी तुझे अपने गम के तरन्नुम में छुपा लूँ,
बादलों पर चलके आयेगी जब मिलने तू हर सहेर
तेरी बारिश में भीग के अपने आँसुओं में तुझे बसा लूँ,
तू अगर तमाशा बनके नाचे मेरी तमाम हसरतों पर
इन तमाशों की वफ़ा में हर किरदार मैं हंस के निभा लूँ,
आ ख़ुशी तुझे अपने गम के तरन्नुम में छुपा लूँ...
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Wednesday, June 6, 2012
एक ग़ज़ल - मेरी हसरतें
लोगों ने जो लगाई मेरी हसरतों की राह में आग,
खून का हर कतरा आँखों में तपिश बनके बस गया,
गुज़ारिश थी अंजुमन से सिर्फ चंद सांसों के सुकून की,
पर तामीर ओढ़े कमबख्त ज़माना मेरी रूह को ही डस गया,
कहते हैं लोग तारों की आर्ज़ू कर इतनी की धूल तो मिल जाये,
पर घर के अंधेरों से घबरा कर मेरा साया रात में कहीं फँस गया,
कहाँ है वो जन्नत जहाँ होता है दुआओं का जलसा देर सवेर,
यहाँ मेरी ही इबादतों का फन्दा मेरे अरमानों पर कस गया,
हज़रत की शबनम में मैंने भी खिलाया गुल होके बेनज़ीर,
पर शगुफ्ता में उसकी मेरे ही अश्कों का रस गया...
Tuesday, June 5, 2012
Sunday, June 3, 2012
एक बे(नाम) ग़ज़ल
ज़माने के रिवाज़ों ने मारे मुझ काफ़िर को ताने
कुछ ऐसे वक़्त में तप के बने मेरे अफसाने,
होठों की पपड़ी बनके रह गए मेरे सब अल्फाज़
अब सिर्फ आँखों से बहती है रूह होके गुम्साज़,
शौकिया गम में भी उड़ाते चले हम हंसी के बुलबुले
हमारी ही बेबसी में आये लोग लेके अपने सिलसिले ,
लोगों जला दो मेरी मल्कियत के दिए अपने बाज़ार
इस ज़िल्लत से फिर भी रोशन मेरी उमीदों की मज़हार,
कारवां-ए-ज़िन्दगी पे नाज़ करता अब हाथों का जाम
आईने से रूबरू होता अजनबी पूछे उस अक्स से मेरा नाम...
Tuesday, May 29, 2012
2 मई 2012 को दैनिक जनवाणी में प्रकाशित मेरा लेख - 'चटपटी नज़र का बेस्वाद भारत'
कल कई सालों बाद अपने शहर मेरठ के दर्शन करने का एक अप्रत्याशित परंतु सुखद अवसर मिला था| सुबह से आबू लेन की चाट का चटपटा और नमकीन ज़ायेका मुंह में भूख के फुव्वारे चोढ़ते हुए पेट के गुम्बज में तीव्रता से चक्कर लगा रहा था | बहुत आशावान और उत्तेजित होकर शाम करीब 6-6:30 बजे निकल गयी थी अपने उसी पुराने चटोरेपन के अड्डे पे, मेरी घड़ी शायद समय से पहले चल रही थी परंतु उस उत्सुकता और बचपन के मधुर विषाद के आनंद ने मुझे वहाँ उन चाट वालों से भी पहले पहुँचा दिया था | इंतज़ार एक ख़ुशी का अनुभव होता है ये बात सोच के ही मैं बड़ी बेसब्री से उन चाट वालों का इंतज़ार कर रही थी | ना जाने क्या जादू सा उनके हाथों में होता है कि जैसे भ्रमांड के सभी स्वाद उस पापड़ी चाट या आलू टिक्की चाट में ख़ुशी से समा जाते हैं | करीब आधा घंटा बीत गया और कोई हरकत शुरू नहीं हुई थी और ना ही कहीं दूर से मुझे कोई चाट वाला अपनी रेड़ी लाते हुए दिखाई पड़ रहा था | थोड़ा संशय में पड़कर मैंने आस-पास के लोगों से उन चाट वालों के बारे में पूछना शुरू किया, इस जवाब की उम्मीद के साथ कि चाट वालों के इस दैनिक काम का समय और स्थान बदल चूका है | कई लोग बिना कुछ कहे या भद्दी सी शकल बनाते हुए बिना कुछ कहे वहां से चले गए | कई लोग मेरे इस प्रशन पर धीमी पर प्रमुख अठ्हास कि आवाज़ निकालने लगे जैसे मैंने किसी काल्पनिक वास्तु या विलुप्त जीव के बारे में पूछ लिया हो | आखिर में एक सज्जन ने मेरी बेबसी को भांपते हुए मुझे स्पष्ट शब्दों में बताया कि काफी समय से अब वहाँ कोई चाट वाला नहीं खड़ा होता, दरसल किसी उच्च प्रोफाइल वाले जनता के सेवक ने ही उन्हें वहाँ से हट जाने का आदेश दिया था | बस जैसे ही यह शब्द कानो पे पड़े मुह सिकोड़ गया और पेट का गुमबज गुस्से में अजीब सी आवाजें निकलने लगा | अपने अतीत में वापस जाके फिर से अपने बचपन को जीने कि इच्छा जागृत होने लगी, जिसके द्वारा मैं अपनी युवा अवस्था में आने पर, मेरे चाट जैसे विभिन्न स्वादों और आकृतियों वाले शहर को इस क्रूरता से बदल देने वालों का विरोध कर सकूँ |
पर वो कहते हैं ना कि वास्तविकता कल्पना से अधिक विचित्र होती है, इस कारण से मुझे अपना यह मुर्खता से पूर्ण ख्याल उन चाट वालों के कल्पित और गोपनीय स्वाद में दबाना पड़ा | आज अपनी इस अधूरी इच्छा से भी ज्यादा दुख, ग्लानी और आश्चर्य मुझे मेरे देश में होने वाले व्यर्थ के बदलावों पे हो रहा है | ऐसा लग रहा है जैसे मेरा देश नहीं कोई मिट्टी और लकड़ी से बना बेजुबान पुतला हो जिसे हर बार लोग अपनी सुविधा के अनुसार बदलते रहते हैं और भूल जाते हैं इस धरती में उगते सच्चे तत्व और अतुल्निय गुण | जहाँ देखो बदलाव ही नज़र आ रहा है कभी चीज़ों के रूप में नहीं तो कभी इंसानों के रूप में | पुरानी चीज़ों का या तो नामोनिशान मिटा दिया गया है या फिर उन्हें नया रूप देकर और नयी पैकिंग में डाल के पूंजीवादी अर्थव्यस्था का सुविधाजनक और फ़र्ज़ी हिस्सा बना दिया जाता है | "परिवर्तन अनिवार्य है" ये बात सौ प्रतिशत उतनी ही सत्य है जितना कि वो बिछड़े हुए चाट के ठेले परन्तु यह परिवर्तन अफ़सोस से कुछ वर्गों एवं स्थानों तक ही सिमित रह कर अन्य सभी को रेगिस्तान में पड़े कंकाल कि तरह विकास और वृद्धि से वंचित और सूखा छोड़ जाता है | भूमंडलीकरण और नवीनता अवश्य हमारे देश को विकासशील देश से विकसित देश कि तरफ बढ़ाते हुए प्रगतिशील बनाने में पूरा योगदान दे रहे हैं | इसका विभाजन करने पे जो 'भू' और 'मण्डली' शब्द निकलते हैं उसमें क्या उतनी ही क्रम्किता है, जितना कि हमारे देश के बाहरी चित्र पर नयी पैकिंग में पुरानी मिठाई के रूप में नज़र आती है ?
दोहरी आमदनी और तेज़ी से जीवन व्यतीत करने वाली नयी पीड़ी तो शायद चीज़ों का असली और नस्लीय मूल ज्ञात ही नहीं होगा और गैस चूल्हे पर सिकती रोटी का स्वाद रेडीमेड भोजन के प्लास्टिक की गंध में खो गया है | भूक मात्र एक कैप्सूल में परिवर्तित होती जा रही है, एक परमाणु बोम्ब की तरह लम्बे समय तक विस्फोटक रहने वाला कैप्सूल | रोटी, कपड़ा और मकान केवल गरीब वर्ग का नारा है पर यह छोटे और पिछड़े लोगों का अस्तित्व गैर और महत्वहीन बनके, एक मृगतृष्णा ही रह गया है |
नवोन्नत वर्ग की इस विनिर्देश से बचने का प्रयास करते हुए शायद मैं अपने पुराने महत्वकान्षाओं से परिपूर्ण (‘हम होंगे कामयाब’ गीत की सच्चाई वाले)भारत के दर्शन सिर्फ कहानियों और कविताओं में ही कर पाऊँगी | रही बात चाट के चटकारों की, वो तो अब बचपन के दिनों की यादों वाली सुरंग में, अनैच्छिक या समय की पाबंदियां हटने पर स्वैच्छिक तरीके से, भटकने पर ही मिल पाएंगे |
Monday, May 28, 2012
हो री पतंग (गीत)
हो री पतंग बादलों के बीच तू लहरा कुछ ऐसे,
उनके होठों की आधी चांदनी फैली हो जैसे
धुप के मोती उनके आँगन में डालके तू पतंग
कहना वक़्त भी अपनी राह में खोजे उनका संग
अपनी उँगलियों में कस लूँगी इस कदर तेरी डोर
की वापस लेके आएगी तू उनकी बातों की भोर
हो री पतंग बादलों के बीच तू लहरा कुछ ऐसे,
उनके होठों की आधी चांदनी फैली हो जैसे
आँखों की ओस से लिख दूँ तेरे कागज़ पे कुछ बात
छत पे जाके देख कैसे करें वो तारों में मुझसे मुलाकात
बारिश की बूंदों से अगर हो जाये कुछ मद्धम तेरा रुख,
उनके तकिये से कहना इंतज़ार में बेठी बाँटने सुख-दुख
हो री पतंग बादलों के बीच तू लहरा कुछ ऐसे,
उनके होठों की आधी चांदनी फैली हो जैसे
Thursday, May 24, 2012
बचपन का झिलमिल गुब्बारा
![]() |
(तस्वीर : अल्बर्ट लामोरिस्से की फिल्म 'दा रेड बलून' से) |
ओ बचपन, ओ बचपन,
उड़ जा तू गुब्बारा बनके,
बचते बचाते सपने में,
जंगल की तीखी शाखाओं से,
न खरोंच दे तेरी अबोधता को,
अपने दुष्ट प्रयोजनों से घायल करके ।
कुचते हाथों से अपने गुब्बारे को सैर करा,
सूरज की किरणों के तिलिस्म में,
मुट्ठी में बांध कर झिलमिल चितियाँ,
लौटा दे मेरे आँखों की वो मीठी निंदिया
भेज कर बुलबुल की सुन्हेरी आवाज़ में ।
Saturday, May 19, 2012
वृद्धावस्था (तस्वीर : फिल्म नोटबुक)
वृद्धावस्था में लेते हुए चाय की चुस्कियाँ
हम समय सुरंग के सम्मोहन में होंगे लुप्त,
और विषाद के पलों का स्मरण करते हुए
हमारे हाथ चुम्बक जैसे समामेलित हो जायेंगे,
जीवन वास्तविक में चाहें हो एक अंतहीन गुम्बज,
सत्य रहेगा सिर्फ वृद्धावस्था में इसका प्रेम अनुग्रह,
जब नज़र आएगा विकसित होता हमारा स्वप्न लोक,
हमारा प्रेम सदाबहार के रूप में अक्षत हो जायेगा |
Thursday, May 10, 2012
Wednesday, May 9, 2012
मृत्यु - स्वयं पद प्रदर्शक !
![]() |
(चित्र: फ्रीडा काहलो - मेरी मनपसंद चित्रकारों में से) |
पुन: मृत्यु प्रतीक्षा में,
एकमात्र खोज करती - स्वयं,
जीवन अस्तित्व में स्थिर
आगमन वास्तविकता का -
पद प्रदर्शक का रूप धारण किये |
मृत्यु अपने प्रयोजन की -
खामोश मार्ग दर्शक बन,
मेरे भीतर अपनी दराँती की चमक,
प्रकाशित करती - बनके विश्वात्मा |
परन्तु ये अटल प्रेत - अपरिचित,
समय के मोनोक्रोम से,
जो है संभवतः - मेरा भाग्यविधाता,
और मृत्यु की प्राणहर झंकार,
गुंजायमान - जीवन प्रक्रिया के परिमाण पर |
Sunday, May 6, 2012
स्वैछिकता में अस्पष्ट मनोकामनाएं ! (चित्र : अमृता शेरगिल)
Labels:
modernization,
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अमृता शेरगिल,
आधुनिकरण,
पुनर्जागरण
Location:
Gurgaon, Haryana, India
Thursday, May 3, 2012
Sunday, April 29, 2012
Tuesday, April 24, 2012
भ्रष्टाचार का मलबा
रोज़ की दिनचर्या की यात्रा के समय जब भी मेरी नज़र स्थानीय रेलवे स्टेशन या बस स्टॉप पर बेचे जाने वाले अख़बार या पत्रिकाओं पे पड़ती है उसमें एक प्रमुख खबर मेरा ध्यान चुम्बक की तरह अपनी तरफ आकर्षित कर लेती है | चोर नज़र से बिना उस खबर की खरीदारी किये जब उसे पढने की कोशिश करती हूँ तो नज़र सबसे पहले एक साधारण कद - काटी वाले एक वृद्ध मनुष्य पर पड़ती है, लोग इन्हें देश विदेश में "लोकपाल विधायक - अन्ना हजारे" के नाम से जानते हैं|गांधीवादी गुण के साथ अन्ना हज़ारे को संदर्भित किया जाता है, समाज से भ्रष्टाचार की गंदगी के उन्मूलन के लिए युद्ध स्तर पर इन देवता पुरुष ने अपनी कमर कसी हुई है| परन्तु न जाने क्यूँ उनकी इस आकांक्षी समाज की तस्वीर मन में न जाने एक बेचैनी, एक अल्हड़पन सा महसूस कराने लगती हैं शरीर में, जैसे ये सब एक मृगतृष्णा है या फिर एक ब्लैक होल|
अन्ना जी और उनके नेक काम के प्रति पूरे सम्मान के साथ, सकारात्मक हूँ परंतु यह भ्रष्टाचार का गोबर यदि सीमेंट के सामान मज़बूत रूप ले कर हमारे दिल, दिमाग और आत्मा में घुस्पेटिया बनके बैठ जाये, तो इस परेशानी का निवारण कैसे किया जाये? हर सामान्य एवं असामान्य व्यक्ति जो अपनी जीवन शैली की सीमाओं में तल्लीन है और जिसका अस्तित्व ही शायद इस भ्रष्टाचार में घुल मिल गया है, वो इसके दुष्कर्म का आभास किस प्रकार से कर पायेगा, यह मेरी प्राकृतिक समझ के बाहर है|
इडियट बॉक्स यानि टेलेविज़न पे चैनल बदलते वक़्त अकसर नज़र जनता जनार्दन के किसी दूत की बुलंद आवाज़ की तरफ खींची चली जाती है, जो की अपनी आवाज़ के शीर्ष पर चीख कर यह बताने की कोशिश कर रहा होता है कि "लोकपाल बिल जल्द ही पारित हो जायेगा और आज़ादी के संघर्ष का दूसरा आन्दोलन भारतीय संविधान में चिह्नित किया जायेगा|" अगर इस कथनी अथवा करनी के सफल समापन में ज़रा भी सच्चाई है तो मैं पूरे देश को बधाई देना चाहूँगी परंतु एक सवाल जो मैं सबके समक्ष प्रस्तुत करना चाहती हूँ, वो यह कि "क्या ये विधेयक हमारे देश को डीमक कि तरह कुतरती बुराइयों की कमी को सुनिश्चित कर पायेगा?"
भ्रष्टाचार के बारे में लोगों की आम राये अवैधानिक ढंग से अपना वैध काम कराने के लिए पैसा देना है|जिसकी असहमति और शायद परिस्तिथि के अनुसार सहमति पे, टिपण्णी देने वाले अनेकों सज्जन हमारे देश में रहते हैं|लेकिन वो अन्य मुद्दे जो असलियत में एकत्रित होके इस बड़े कूड़े के ढेर, यानि भ्रष्टाचार को इजाद करते हैं, उनकी तो यह महारथी अपेक्षा ही कर देते हैं| उदहारण के लिए, ऑटोरिक्शा में बैठ के अपने गंतव्य तक जाने के लिए कई बार आपको वैध किराया देना पड़ता है, पर आप इस दबंग बाज़ी के आगे निहत्थे हैं क्यूंकि आपके दिमाग में उस समय सबसे महत्वपूर्ण बात ये चल रही होती है कि किस प्रकार शीघ्र अपना कार्य शुरू करें|इस कारण वश आप बिना अपनी मानसिक शांति के साथ समझोता किये बिना वो चंद Rs.4 से Rs.5 भी देना वैध समझते हैं| तो अगर भ्रष्टाचार कि सामान्य परिभाषा को माने तो यह उदहारण एक दम सटीक बेठता है और ऐसे ही छोटे छोटे वास्तविक जीवन के उदहारण मिलके भ्रष्टाचार के द्वारा देश को खोखला बनाते हैं|ऐसे ही अगर आप किसी नए शहर में जाते हैं वहां कि भाषा, स्थानों और नियमों के प्रति आप अनजान और अनभिज्ञ महसूस करते हैं और अपने ही देश में आप पे विदेशी कि मोहर लगा दी जाती है| आपको इस नज़र से देखा जाता है जैसे आप किसी दुसरे गृह से पृथ्वी लोक पे आये हैं, शायद इस तुलना में भी राकेश रोशन जी कि फिल्म में अजनबी जीव 'जादू' को ज्यादा सम्मान से संबोधित किया जायेगा, यदि वो पृथ्वी पे सत्य में प्रकट हो जाता है|यदि आप अपने लिए कुछ बुनियादी सामान खरीदने जाते हैं, जैसे फल -सब्जी या राशन तो आप का किसी तिलस्मी माइक्रोस्कोप से मुआइना करते हुए दुकानदार आपके विदेशी होने को भांप लेता है और अचानक आपके लिए सभी दाम उच्च स्तर पे पहुँच जाते हैं और हिम्मत करके पूछने कि चेष्टा भी करें आप तो जवाब तुरंत मिलता है वो ये कि "यहाँ हर जगह ये ही दाम है"| आप असहाय और मजबूर हैं, आप एक - दो जगह और कोशिश करते हैं पर निराशा वश आपको अवैध पैसों को दे कर अपनी जीवन की गाड़ी को चलने के लिए वैध सामान खरीदना पड़ता है|
बाकि अन्य छोटे परंतु मुख्य मुद्दों का सूचीकरण देना अनिवार्य नहीं क्यूंकि तथ्य ये है कि इन पर बात या टिपण्णी करना भी व्यर्थ है| असल मैं ज़रूरत है इन भ्रष्टाचार के उपाख्यानों के प्रति एक ठोस समाधान निकालने की, क्यूंकि क्रिया में शब्दों की तुलना में अधिक बल होता है| व्यक्तिगत रूप से मैं ये ही कहना चाहूँगी की खाते-पीते, सोते-जागते मैं स्वयं को इस भ्रष्टाचार के गू में फंसा महसूस करती हूँ और अगर स्वयं मल पारित क्रिया की तरह इससे भी छुटकारा पाने का प्रयास करूँ तो अचानक कब्ज़ से पीड़ित होने का एहसास सा दिमाग और आत्मा में होने लगता है|
Monday, April 23, 2012
स्कूल बैग
![]() |
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ |
सूर्य के शिखर से पहले,
रोज़ नन्हे कदम टुक-टुक गुनगुनाते,
खिलखिलाते स्कूल बैग को देखने,
वो परियों की कहानी का पिटारा,
तरसती बुनियाद उसकी - लत्ता सी वो,
नाजायज़ सी उम्मीद मुट्ठी में बंद,
जायज़ मुस्कान के पीछे छुपी लौट जाती |
टिमटिमाती आँखें - कठबोली में,
"माँ सममित कपड़े मैं क्यूँ नहीं पहन पाती?"
पसंद को तुम्हारी ज़रूरत नहीं,
माँ विषय बदल देती - अट्टहास में,
पर शब्द तो सुइंयाँ चुभा देते,
स्तब्धता को हंसी में बसा लेते |
Monday, April 16, 2012
अपरिचित - किस छोर पे?
विदेशी भूमियों के लिए -
दूरस्थ, अनजान भूमियाँ,
यात्रा कि शुरुआत से पहले,
पूछूंगी - हवा, सफ़ेद बादलों से,
भविष्य कि धारणा का रहस्य?
उत्तर प्रवेश होगा - रेंगता हुआ,
एक सफ़ेद तिलिस्मी जहाज़,
निर्धारित - मेरी दूरस्थ भूमि कि,
बढती महत्वकान्षाओं के लिए|
परन्तु हे भविष्य! सुदूर पे -
आगमन के पश्चात्,
क्या मेरा मन विचीलित होगा?
क्या फिर से यह हवा, यह बादल,
पूछूंगी - हवा, सफ़ेद बादलों से,
भविष्य कि धारणा का रहस्य?
उत्तर प्रवेश होगा - रेंगता हुआ,
एक सफ़ेद तिलिस्मी जहाज़,
निर्धारित - मेरी दूरस्थ भूमि कि,
बढती महत्वकान्षाओं के लिए|
परन्तु हे भविष्य! सुदूर पे -
आगमन के पश्चात्,
क्या मेरा मन विचीलित होगा?
क्या फिर से यह हवा, यह बादल,
मुझे बना पाएंगे रूपक -
अपनी मूर्तिकला का?
स्वागतम के मधुर सुर की भोगी -
अपनी मूर्तिकला का?
स्वागतम के मधुर सुर की भोगी -
अपनी भूमि, अपने देशज में,
बन पाऊँगी मैं - अपरिचित?
Sunday, April 15, 2012
एकीकरण
रात की -
कन्जन्क्टीवाईटिस सी आँखों में,
मेरी कल्पना,
मेरे सपनो की गोधूली के बीच,
नज़र आती वह अदृश्य- मृगतृष्णा भूमि
तर्क-वर्णन करती,
मुझसे चंचल मैं,
"सत्य क्या है?
"यह जगह -
"जहाँ हम रहते हैं?",
यह गुम्बज -
"जहाँ हम रहते हैं?",
यह गुम्बज -
जैसे जीवन के ग्लोब पर स्थिर -
लघु कथा,
अंततः फिर प्रवेश होता,
मेरे जीवन प्रतिक पर,
रात और दिन का एकीकरण ।
लघु कथा,
अंततः फिर प्रवेश होता,
मेरे जीवन प्रतिक पर,
रात और दिन का एकीकरण ।
Monday, April 9, 2012
प्रेम छवि - दीवार के अन्य पक्ष से !

मैं आऊँगी वापस,
जल्द ही,
मेरे प्रिय!
और मैं लाऊँगी तुम्हारे लिए,
वो फूल जो मैंने चुने हैं,
तुमहारे लिए,
दीवार की दूसरी तरफ से -
वो अन्य पक्ष -
दिवार के!
और फिर तबाह हो जायेंगे,
सभी बंद फाटक,
प्रेम से!
तब चलेंगे हम दोनों
उन निर्जन द्वीपों पर -
प्रेम युद्ध के साक्षी,
जयजयकार करते उन लोगों की -
संवेदनशील लोग-
धार्मिक द्वारा प्रेम,
प्रेरित हम,
मंत्रमुग्ध -
प्रेम से !
(चित्र: लवर्स डिस्कोर्स - रोलैंड बार्थस)
Saturday, April 7, 2012
पलों की तुकबंदी
गीले तिनकों से फिसल जाते हैं पल
जो तेरे साथ में गुज़रते हैं,
पल नहीं ये ओस की बूँदें हैं
जो ख्वाबों की तितलियों के परों पे सवार
तुम्हारे आशियाने की नमी बन जायेंगे|
पल जो उतारे थे तेरी गर्दन से,
पल जो कहीं पीठ पे गुम हो बैठे हैं,
पल जो गुम्साज थे लकीरों में,
पल जो आवाज़ तक खो बैठे|
पल जो कहीं पीठ पे गुम हो बैठे हैं,
पल जो गुम्साज थे लकीरों में,
पल जो आवाज़ तक खो बैठे|
वो विषाद की लकीरें जो अटकती
मेरी आँखों में किरकिरी बनके,
कि भटकती राह दिखा दो उन पलों को
जानती हूँ पल और इंतज़ार इश्क का विस्तार है
कोई ऐसा राग सुनाओ जिसका इंतज़ार ये पल करें|
मेरी आँखों में किरकिरी बनके,
कि भटकती राह दिखा दो उन पलों को
जानती हूँ पल और इंतज़ार इश्क का विस्तार है
कोई ऐसा राग सुनाओ जिसका इंतज़ार ये पल करें|
Thursday, April 5, 2012
सावन् का इन्तज़ार्
आज फिर चली दिस्मबर के महीने की हवा सर्द,
लबों पर हंसी आँखों में नमी देता
तेरी नामौजूदगी का दर्द
दिल का पंछी आज फिर है उङने को बेकरार
ये धङकने फिर भी करती हैं "सावन का इंत्ज़ार"
वो तेरी साँसों की गर्मि का
मखमला सा एहसास,
आम सी थी मैं पहेलि
तुने बनाया था कुछ खास,
शीशे से रुबरू हो के करती अब
अपनी तमन्नओं का इज़हार
मेरी परछाई फिर भी करती "सावन का इंत्ज़ार"
तेरी जुस्तजु में खो जाने को
ऊंघता ऊमङता है मन
तेरे इश्क बिना अधूरा सा लगे यह जीवन,
आँखें आज भी तेरे नाम से करतीं
सहरी और इफ्तियार
पर मुझे फिर भी है "सावन का इन्तज़ार"
Tuesday, April 3, 2012
मेरा सपना
आदरणीय माता - पिता
यह बात परम्परागत रूप से सत्य हो सकती है कि मेरा सपना मुझे समाज के नियमों के अनुसार एक अच्छी और लायक बेटी घोषित नहीं करता | समाज के रचनकारों के अनुसार जीवन व्यतीत करना मेरे लिए मूर्छित अवस्था में होने जैसा है और इस बात कि स्वीकृति मेरी आत्मा नहीं देती मुझे|
आपका यह समाज , यह दोगुना मानक वाला समाज मेरे सपनों से मेरे संबंध को समझने में असफल है और मुझे इस समाज को अपने ढांचे में ढालने में कोई दिलचस्पी नहीं | मेरी इस पीड़ा को समझने में आप भी आज असमर्थ रहे हैं क्यूँकी आप भी इस समाज के आदर्शों पे चलने वाले पुतले हैं| आज मैं ऐसी कशमकश में हूँ जहाँ आपका प्यार मेरे सपनों के बीच रुकावट बनके खड़ा है |
मैं इस प्यार के बिना तो शायद जिंदा रह लूँ परंतु अपने सपने का दाह संस्कार करना मेरे लिए संभव नहीं|अकेले रह कर संसार के ठहाके सहना शायद आसान हो मेरे लिए पर अपने सपनों को त्याग कर अपने अंतर्मन्न के ठहाकों का शोर मुझे तिल-तिल करके मार देगा |
यह बात परम्परागत रूप से सत्य हो सकती है कि मेरा सपना मुझे समाज के नियमों के अनुसार एक अच्छी और लायक बेटी घोषित नहीं करता | समाज के रचनकारों के अनुसार जीवन व्यतीत करना मेरे लिए मूर्छित अवस्था में होने जैसा है और इस बात कि स्वीकृति मेरी आत्मा नहीं देती मुझे|
आपका यह समाज , यह दोगुना मानक वाला समाज मेरे सपनों से मेरे संबंध को समझने में असफल है और मुझे इस समाज को अपने ढांचे में ढालने में कोई दिलचस्पी नहीं | मेरी इस पीड़ा को समझने में आप भी आज असमर्थ रहे हैं क्यूँकी आप भी इस समाज के आदर्शों पे चलने वाले पुतले हैं| आज मैं ऐसी कशमकश में हूँ जहाँ आपका प्यार मेरे सपनों के बीच रुकावट बनके खड़ा है |
मैं इस प्यार के बिना तो शायद जिंदा रह लूँ परंतु अपने सपने का दाह संस्कार करना मेरे लिए संभव नहीं|अकेले रह कर संसार के ठहाके सहना शायद आसान हो मेरे लिए पर अपने सपनों को त्याग कर अपने अंतर्मन्न के ठहाकों का शोर मुझे तिल-तिल करके मार देगा |
आपकी बेटी
Friday, March 30, 2012
Wednesday, March 28, 2012
अकेलापन (आत्म अवलोकन) - 36 Chowranghee Lane देखने के पश्चात्
कई बार युवा अवस्था में खुद को मनोचिकित्सक एवं साधुओं-फकीरों से भी दिखवाया कि मैं अपने भीतर के संसार और बाहर के संसार में समझ और संतुलन क्यूँ नहीं बिठा पा रही| सब ने खूब दवाइयां, पत्थर और मालायें दीं मुझे पहनने को परंतु मुझे यह नहीं समझा सके कि मेरे जीवन के अर्थ का विश्लेषण करने का तरीका बिल्कुल अलग क्यूँ है| वो यह नहीं समझा पाए मुझे कि क्यूँ मुझे नीरसता और उदासीनता में सुकून मिलता है| शायद वो नहीं जानते थे कि अपने सपने का तकिया बनाके उसपे सोना और अगले दिन सूर्य कि पहली किरण के साथ उस सपने को पूरा करने कि आशा को लेकर घंटो सोचते रहना क्या होता है| अगर इच्छाएं घोड़े पे सवार होती तो इस मुखौटा पहने संसार कि हर बात का विश्वास हो जाता पर सत्य हमारी सोच से बहुत गूढ़ है और ऐसी कल्पना से साहस कि उम्मीद रखना व्यर्थ ही रहेगा| शायद रबिन्द्रनाथ टैगोर ठीक कहते हैं, "एकला चलो रे"...
Friday, March 23, 2012
Thursday, March 22, 2012
Tuesday, March 20, 2012
Monday, March 19, 2012
Sunday, March 18, 2012
रात का आवरण संगम

कोहरे में कंपकपाती रात,
एकांत में दस्तक देती,
स्वयं को खोजती आई,
मेरे दरवाज़े पर सिमटी हुई -
क्लांत भावनाओं से |
श्रृंगार से सुशोभित काली स्त्री,
एकांत में दस्तक देती,
स्वयं को खोजती आई,
मेरे दरवाज़े पर सिमटी हुई -
क्लांत भावनाओं से |
श्रृंगार से सुशोभित काली स्त्री,
अपने स्याहपन के इकहरे आवरण में,
फिर सींचती मेरे शब्दों को,
चाँद पर बिखरी गोधूलि से
और खुरचती प्रत्यय पर फैले ज़हर को|
शायद अपने जैसी वंचित,
मुझे व्यर्थ समझती हुई आई,
ले जाने तारों की छावनी में,
जहाँ इश्वर तैरते हैं,
नींद और स्वप्न की नगरी के संगम पर|
फिर सींचती मेरे शब्दों को,
चाँद पर बिखरी गोधूलि से
और खुरचती प्रत्यय पर फैले ज़हर को|
शायद अपने जैसी वंचित,
मुझे व्यर्थ समझती हुई आई,
ले जाने तारों की छावनी में,
जहाँ इश्वर तैरते हैं,
नींद और स्वप्न की नगरी के संगम पर|
Friday, March 16, 2012
मैं सिर्फ मैं हूँ (चित्र : साल्वाडोर डाली)
मैं सिर्फ 'मैं' हूँ,कोई और क्यूँ नहीं?
लेकिन उससे क्या होगा?
मेरे दिल के ख़ामोश लम्हे -
मेरे जीवन में 'मैं' के उद्देश्य का,
रद्दी भर भी एहसास कर पाएंगे?
मैं सिर्फ पहचान सकती हूँ -
स्वयं की सीमाओं को,
किसी और रूप में ढल भी जाऊँ,
परंतु कैसे भावनाएं समझेंगी -
मेरे अस्तित्व में छुपी,
मान्यता देती 'मैं' की असुरक्षा को ?
मैं, लेती एक निर्णय - 'मैं' नहीं रहती,
फिर देना इस छद्दा रूप को
मेरे व्यक्तित्व के सत्य का परिचय,
अगर मैं हो जाये दफ़न -
इस गलत पहचान के मलबे में,
फिर से क्या मैं की आत्मा -
अपनी परिकल्पना खोज पायेगी?
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